Friday 25 May 2012

कशमकश या हक ....?

आज मेरी मौत हुई ..कई मायनों में ...
खनक और चबक दोनों साथ थी शाम तक ...
आज रात नहीं मालूम क्यूँ इतना अँधेरा हुआ..है बाहर से भीतर तक ...
मालूम है वहाँ एक दीप जल रहा है आस का ,मगर मन गमगीन हो गया ..
उल्लास खो सा गया है मन का ...और में न चाहते हुए मरने को तैयार हूँ ..
उसने मुझे मार डाला ...या मैंने ही मौत को चुन लिया ...
क्यूँ इतनी शिद्दत भी नहीं आज ..शब्दों में ...
खुद को ढूंढ सके ....ये कोई आयाम
 नहींहै ...
फलक के एक छोर की माफिक हूँ ...अबूझ सी पहेली मैं ...
इतनी बैचैनी .....मुझे मार डालना चाहती है ...
मगर मौत को अभी इन्तजार करना ही होगा ...
मेरे खंजर को संवरना ही होगा ..
मुझे जन्म लेकर भी उस राह को पाना ही है ...
दोस्ती और दुश्मनी से अलग मुकाम तय करना ही है ...
आज की खामोशी मुझे साल रही है ....
दुआ है खामोश मन के भीतर की ......
कोई रास्ता तो होना चहिये ...सहर को आना ही होगा ...
मगर कब ..?सवाल है बहुत बड़ा ...
वजूद ...मतलब पूछ रहाहै....सबब चाहता है ...
जिंदगी की उड़ान देकर....मुह फेर कर हंसता है मुझपर ...
चैन छीनकर गर्दभ टोली का अपमान चुकाना चाहता है ...
खुद शेर होगा ...मगर सपेरों से बीन बजाते है बिना सुर की ...
और दौड कर डराने को व्यर्थ कोशिश ....जिंदगी बन कर धोखा ....
और अब मौत ....अब मुझे मौत को भी गुलाम बनाना है ..
कम से कम उसे मालूम हों तू ही बसर है और तू बसर भी नहीं ...
जिंदगी भी नहीं और उससे कमरत भी नहीं ...
मासूम सी दुआ बन जा ....
वो साथ देकर अब कतराने लगा है ...

या जिंदगी से पीछा छुड़ाने लगा है ...
जाना है ...चला जा ...आबाद रह ..बर्बादियों को सम्भालेगे ...हम ...
बोल या मत बोल साथ तो चलना ही होगा हमे लेकर ...
दुल्हन सा सजकर अब हम छूटेंगे नहीं... ये हक है हमारा ...--विजयलक्ष्मी 

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