Saturday 30 June 2012


इन नैनों में जाने कितने सपने तिरते हैं ..
जीवन को देखने के करीब से जीने की ललक के चलते
आसमां पर छा जाने के,हवा से बात कर बह जाने के
तूफ़ान से टकराने के ...कुछ कर दिखाने के ..
सबको अपना बनाने के ,धरा को स्वर्ग सा सजाने के ...
ख्वाबों को सच कर दिखाने के ..
अब सुन मेरे सपनों का सच क्या है ....
मेरी नहीं अपनी सोच ..
अपनी वंशबेल की सोच ..
घर की किलकारी की सोच ..सूने हुए आंगन की सोच
अपनी महतारी की सोच..बिछिये पायल की लयकारी सोच
दहेज की लाचारी की सोच ..धन की लाचारी सोच
पुरुष हुआ बिन नारी सोच..
कैसे जिन्दा रहेगी दुनिया सोच ..
सोच अब अपनी सोच की सोच
क्या फिर संसार बचा पायेगा ?
क्या दुनिया चला पायेगा ..
अपने ही अस्तित्व को बचा पायेगा
........
अगर हाँ ..तो मार डाल मुझे क्यूँ जिन्दा रहने का हक दिया ?
दुनिया देखने का हक नहीं मुझको ..
इन आँखों में ख्वाब क्यूँ सजे फिर
मुझे कोख से मत निकाल
खुद से कर विचार और कर डाल
.......... कन्या भ्रूण हत्या .......
.......जीने का अधिकार नहीं .......
......फिर तेरा भी संसार नहीं .......--विजयलक्ष्मी
 

Friday 29 June 2012

सत्य मरता नहीं ...

सत्य मरता नहीं ...सिसकता है 
कालिख भरे से कोने में ,
मारने की साजिशे बेकार होंगी 
विष का डर क्यूँ ,विष होने में ,
नजर में पाकीजगी पर गुमाँ था हमे 
शक नहीं अब भी होने में ,
बहुत सारे बिल पड़े बाकी अब तलक
वक्त लगेगा अदा होने में ,
मेरे घर का छप्पर उड़ा है तूफां से
सहम के बैठा हूँ कोने में ,
एक दीप जल रहा है बाकी अभी भी
शक नहीं रब के संग होने में,
मान भी लूं कुछ बेअदबी अगर हुयी है
कसर थी ?बाकी डुबोने में,
आह! शहर में अँधेरा क्यूँ गहराया है
क्यूँ बैठा है आफ़ताब कोने में.-विजयलक्ष्मी 

Thursday 28 June 2012

माँ ..



माँ की ममता चंडी बन जाती है बच्चों की खातिर ..
उपर वाले से भी लड़ जाती है बच्चों की खातिर ..
वो निरा ही सर फिरा है देखता नहीं है क्या ..
क्यूँ दुहाई उस प्यार की जो जहर बन गया ..
जहर को निकलना भी बहुत जरूरी सा हों गया ..
फ़ैल जायेगा अगर...उपवन उजाड़ जायेगा ..
सोच ले फिर ये प्यार भी जहर बन जायेगा ..
कितनों को मारेगा .. तुझे मालूम भी न चल पायेगा ..
फिर उजड़ी राह को देखना ...
वृक्ष खड़ा है जिस जगह उस जगह को देखना ..
छाँव है जहाँ जहाँ,जलती सी धूप देखना ..
जमीं तो उजड चुकी होगी गड्ढों को फिर तू देखना ...
सोच कर कोई फैसला करना जरूरी हों गया है
दर्द के सिले सारे उजड़ी नजर से देखना ...
सम्भल वक्त है अभी ....उन सीलों को भी सोचना .-विजयलक्ष्मी .

उजाड़ कर बाग हरे, पत्थर के जंगल उगा रहा है
जाने मानुष किस दिशा में जा रहा है ..
दिल भी पत्थर कर डाले उसने ,तन को महल सा चिन लिया ..
सजा कंगूरे स्वर्ण रंगो के प्रदर्शनी की दुकान सा सजा लिया ..
मन में कितने खोट भरे हों, कौन देखने जाता है ..
ये तन माटी का जो पुतला..कागज धन से सजा लिया ,
भूल गया मन का मनका ,कैसा जीव हुआ मानुष ,
भूल गया पल भर में मरना यहीं सब कुछ रह जायेगा ...
मुट्ठी बंधे आया जग में हाथ पसारे जायेगा .-विजयलक्ष्मी
सशक्त संत विरक्त रक्त की भावना 
रम राम कृष्ण संग मुरूली धनुष और सृजन की कामना ..
कैसे होगी मगर शिव तांडव बिना विध्वंश ,
भवानी शूल के संग गर चली न..लहू मांग भर चलती धरती कलपती टूटी रूठती
भर पांव उसके कठोर पथ रक्त रंजित हुए कंकरों की
दलित सी हुयी बात बन बाण क्यूँ सजती चली
छवि रूप कवि निरखे भला क्यूँ ..भवानी रूप भूप धर कर चले ..
शिव बनेंगे शव चलेंगे कुरूप शजर मन दौड चल हट मत कर ..
कपाट जलता क्यूँ भला अहं का पट खोल
अब बस ठहर तू मत बोल बस अब चल कहीं अब बस ..
रक्त रंजित वक्त अब बस सहर की क्या खबर बस ..
सुन जरा कुछ रुक जरा न रोक बस ..है कहा तक काली बदली तू काह दे दे जरा ..
ये धरा पूरी ही ऐसी सुन ज़रा बस सुन जरा .-विजयलक्ष्मी

चरित्र


.
.........चरित्र .......
कुछ बोलते चरित्र है कुछ चीखते चरित्र है ,
कुछ भ्रष्ट है ..तो कुछ नष्ट.. चरित्र है,
कुछ चरित्र खेलते है कुछ दिखाते है ,
बहुत कम लोग है जो सच में ही चरित्र निभाते हैं .
कुछ को काम ही गिराना है चरित्र को ..
कुछ है ढकोसला सा ले के चले चरित्र है ..
कुछ दिखावटी ,कुछ बनावटी, कुछ सजावटी चरित्र है ..
सोचा है मैंने भी क्यूँ एक दुकान खोल दूँ ...
माना सोने सा खरा सा नहीं , मगर माटी सा सच्चा चरित्र है ..
किसको कहूँ किसी का तो बिलकुल ही कच्चा चरित्र है..
गाता है वही गीत जगत में मेरा सच्चा चरित्र है ,मेरा सच्चा चरित्र है .-विजयलक्ष्मी

शब्दों की अभिव्यंजना ,अतिरंजना और संजना ...
रचनायें जन्म धरती चले कलम बस यूँ ही चले ..
देखती है खोल आँख ,कौन किसकी बोल आन ,
आग ज्वालामुखी लुटाता बदलों की गर्जना ,,
शब्दों की वर्जना चल दिए फिर उसी राह ..
जिस राह देखि वर्जना ,बहुत कपट कलुष भरा है अंतर्मन अभिकल्पना..
वक्त सर चढ़ बोलता ,उसी गली में डोलता ...
देख मानुष अब कहीं रक्त की न हों संकल्पना ..
शब्द शब्द में बस रोष भ्रम मति का नहीं..
तिमिर उजाला रंग दो जिनके बिना कुछ नहीं अभिव्यंजना...
खोल कर तू देख कपटी नयन कपाट शब्दों के ..
घूंघट में बैठी मिलेगी ..छूरी कटार सी तृष्णा ..
प्रस्तर शजर बन सका भला कब जिंदगी के रूप का ..
बलुई मर्म तपता धधक ...आग उगलेगी धरा और जलता फिरेगा आसमां ,--विजयलक्ष्मी

Wednesday 27 June 2012

कुछ भी तो शेष नहीं ...












हम राख से भी ख़ाक बन चुके है ,

बादलों की जरूरत ही खत्म कर चुके हैं 
आग का है पहरा  मेरे दर की खुशी पर 
हर दरवाजा उसके नाम का बंद कर चुके हैं
जाने करार कैसे समन्दर को आयेगा 
नदिया ही अगर अब रस्ता बदल चुके हैं 
मुश्किल तो बहुत है तुफाँ का रोकना ,
मगर अब हम भी कुछ फैसला कर चुके हैं 
देखते है अब हम ,इस दिल की सदा को 
जिसको वफा के नाम कुर्बान कर चुके हैं.
किया था तर्पण नारायणी पे हमने ,
अमावस्या को अपने सब काम कर चुके है 
हकीकत है रूह नाचती है कलम में 
कुछ भी तो शेष नहीं ,नीलाम हों चुके हैं .-विजयलक्ष्मी

बजता रहा क्यूँ मन मंदिर की घंटियों सा ...

अंगार रचो अंगार बसों,अब रह्यो मझारन अंगारन के ,
कौन गिने तिनके जल जई है सबही संग अंगारन के .विजयलक्ष्मी
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राख का ढेर हैं कोई चिंगारी नहीं बची ,
उसी राख से आग ,अब समन्दर में लगी क्यूँ  .-विजयलक्ष्मी
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देह जल चुकी, है रूह पे अब असर ,
रौशनी का असर अब होता नहीं यारों .-विजयलक्ष्मी 
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बजता रहा क्यूँ मन मंदिरों की घंटियों सा ,
लगा, आवाज कोई फलक के छोर से आई थी ,
नींद से जग पड़ी , सहमी हुई सहर है,बरसी पड़ी थी आग 
चैन ओ अमन थे नदारत बदहवास है सब चमन की आग से ,-विजयलक्ष्मी

कहीं मैं भी ....कवि न बन जाऊँ ..



कलम तेरी बनके, जुदा न हों जाऊँ
खुद से ,वक्त कुछ ऐसा आ गया है ,
खुद से ही अब ,डर लगने लगा है .
दुःख में दुखी सबके रहने लगे हैं
खुशियों पे ताले मजबूत लगने लगे हैं
चलते चलते सफर ये अजब सा
जिंदगी को ख्वाब सा देखने लग जाऊं
कहीं मैं भी ...कवि न बन जाऊँ ...

कवि अजीब होते है अपने से लगते
मगर खुद के भी नहीं होते है ,
जीतते है यूँ तो, दुनिया समझ लो
मगर खुद से ही हारे हुए होते है
समेटते है संसार कलम में अपनी
जिंदगी में खुद से ही बेजार होते हैं
यही खौफ अब मुझको सताने लगा है
कहीं मैं भी ....कवि न बन जाऊँ...

वैसे मैं खुद में सबसे जुदा हूँ ..
जिंदगी का खूबसूरत फलसफा हूँ
क्या हुआ दर्द सबको होता नहीं जो
कलम से ढलक कर रुकता नहीं जो
सफर चलते चलते ख्याल आ गया
जाने क्यूँ सोच में सवाल आ गया ?
ऐसा न हों कभी मैं भी बदल जाऊं ..
कहीं मैं भी ....कवि न बन जाऊँ .-=विजयलक्ष्मी


कश्ती तो सदा रहती ही मझदार है ..
किसी और किनारे की उसको भी कहाँ दरकार है .-विजयलक्ष्मी

चंद लम्हे और रुकते तो अच्छा होता ,
जनाजे का वक्त मुकर्रर तुम्हारी रहनुमाई पे है , -विजयलक्ष्मी

लुटते हुए वक्त का लुत्फ़ अजब सा ही है ,
लुटी सी बयार आँधियों का कत्ल कर गयी ..-विजयलक्ष्मी

फकीरी का रंग उसकी भाया है इस कदर ,
हमने भी रियासतों की बादशाहत छोड़ दी.-विजयलक्ष्मी

अब हलाल होंने की तैयारी हों चुकी ,
नहा धोकर नमाज तक अता कर चुके हैं हम .-विजयलक्ष्मी

वक्त के साथ बदलता दिखाई दिया सब,
बदला तो कुछ भी सब वक्त का ही फेर था .-विजयलक्ष्मी


गोया कोई जादूगरी आँखों में थी उसकी ..
हमने कभी हाथ तक दिखाया नहीं किसी को .-विजयलक्ष्मी

तू अभी बहुत नादान....

तन निरा है कांच ,मनका हीरा मनका ही है .
कैसे सोचा सोच भला ये तन की है फरियाद ?
चल हट परे कैसा करे विवाद रुंड मुंड उतरें क्यूँ 
शिव तो शिव है बैठ समाधि फिर कैसे पाप धरे..
चल बोला था ,नादान अभी है सब के जैसी सोच 
जीवन इतना करे कलुषित क्यूँ तू ज्यादा न सोच .
बैठ अभी बस शब्द पढे है मन राग तो पढता ..
देह तो ढेर माटी, मन पावन कर गंगा कर स्नानं
बैठी शिव संग तू क्या समझेगा ,तू अभी बहुत नादान ..-विजयलक्ष्मी

Tuesday 26 June 2012

बौने से वो पौधे .....गहरे पैठ गए हैं अब ..

बौने से वो पौधे ...., गहरे पैठ गए है अब ,
तुमने देखा ही नहीं निहार कर बहुत पुष्प खिल चुके है
सब सरकारी नौकर है बस उसी लकीर पर चलते ,..
खाती है बाड़ खेत को देखा नहीं क्या कभी गुजरते ?
जंगली हाथी का झुण्ड खेत में आ पहुंचा था ..
जाने कैसे लोग जान से मार कर शेर तक खाते है ...
घास तो खाते थे ,खेल समान का समान के खाया ...
अब जंगल की बारी है ,कहीं आग लगी ,कहीं काट जडो से जला दिया
नेता के घर जाकर उसका नेह झूला झूला दिया ..
रिश्वतखोरी अब कहते है वेतन का हिस्सा है ,
कोई पुरानी बात नहीं कल ही का किस्सा है ..
महंगाई का रोना हों गया रोज रोज की बात ,कितनी बार कहूँ
विद्यालयों के ठीक सामने मयखाने खोल दिए ..
अस्पतालों की छतों पर भी खुले है बाकी ... बोल दिए ..
सरकारी दफ्तर लैला मजनूं की दूकान ....
प्राइवेट नौकरी तन के खेलों की मांग ..जमाना खराब हों चला है
आओ तो सरकारी गल्ले की दूकान का हिसाब लगा देना
एक महीने से बंद पड़ी है ..उसकी शिकयत लिखवा देना
बाकी सब अच्छा है ,कुछ बचा नहीं अभी ..जो लिख भेजूं
फिर खत लिखोगे तो ,...बाकी किस्सा बयाँ कर दूगीं
चलो बंद करती हूँ .. बडो को प्रणाम , बच्चो को प्यार कर दूंगी ..-विजयलक्ष्मी

जलाएगा क्या खाक ....

अच्छा किया , मौत के घाट उतार कर सकूं तो मिला ,
रोता रहे वो तन्हा ,जिसने अच्छा किया ही नहीं .
चल जी ले जिंदगी पुर सुकूं से तू अब ,रकीब से गिला .
बेवफा भी नहीं कह सकते ,दिल को मंजूर ही नहीं .
कुछ और गर नहीं तो लाश दफना तो देना जरूर ..
जलाएगा क्या ख़ाक? कौन लम्हा बाकी,जब जली नहीं.-विजयलक्ष्मी

धार तो तेज होनी चाहिए ..

धार तो तेज होनी चाहिए ...
अगूंठे एकलव्य के... या द्रोण के कटने चाहिए ,
अर्जुनों की तलवार गर चमक है तो चलेगी साथ में ..
जेब वर्ना गद्दीनशीनों की कटनी चाहिए ..
मैल भर के जो उठाये आँख को ..
शूल उसके पार उतार दे.... चलो
वैश्यों की दुकानों को ताला लगा ...कर्म बदल देते है चलो ..
घूसखोरों की औलादों को बाप के साथ.. जेल की हवा तो दिखा
क्या कहूँ ....दरोगा भी जिगर पे पत्थर होना चाहिए ....
द्रोण को कला गर आती नहीं ...रोटी फिर क्यूँ चाहिए ..
आदमी को आदमी की बोटी भला क्यूँ चाहिए..
देख ले सम्भल जा अभी ...वक्त अभी निकला नहीं ..
सूरज को कह से निकल अब ..समय बदलना चाहिए
ज्ञान का दिया ..अंधेरों भी जलना चाहिए
चल , बर्तनों की खनक कान बर गूंजेगी जरूर
लेखनी की धार ... तलवार बन भाजेंगी .. जरूर
एकलव्य अंगूठे क्यूँ दे भला अपने ....
जेब से नोटों की गड्डी...फांसी लगनी चाहिए ..
चल उठ ,साथ चलेगा क्या ....रौशनी कोई दीप से तो जलनी चाहिए
आग जरूरी है तू जला मैं जलाऊँ ...आग वैश्या बनी दुकानों में लगनी चाहिए ..
क्रांति ...की आग ..हाँ अब तो ..लगनी चाहिए ...विजयलक्ष्मी .

चैन लौट जाओ ...

चैन लौट जाओ अब तुम उसके द्वार ,
रुसवा हों चुके हम बैठाया भरे बाजार .
मेरे कच्चे मकाँ और बारिशों का कहर 
डूब रहे हम भी और सांसें हुई लाचार.
उन्हें कुबूल है तो मुझे मौत भी मुबारक
रहम कोई न करना , अब मेरे दातार.
कांधे दूसरे के रख बंदूक तान दी,खुदारा
शिखंडी का हमने देखा हैं नया अवतार .
हंसता है चमन अब उजड़ने के बाद भी,
तराशने बाद भी वो पत्थर  है लाचार .-विजयलक्ष्मी

Monday 25 June 2012

जिंदगी क्या रूप है क्या रंग है तेरा ..



हे भगवान ,..जिंदगी क्या रूप है क्या रंग है तेरा ..
इतनी खारों सी काँटों के तारों सी ,उजडे सहरा के आँगन सी
फूटे बासन सी ,टुकड़े टुकड़े चिथड़े सी हिमालय की पीर सी
लहू की लकीर सी ,कर गयी फकीर सी ,दिमाग कुंद हुआ..साँस अवरुद्ध हुआ
दम साधे देखती रही ..साँस भी लेने की न होश रही ..
जैसे नीम बेहोश रही ,लडखडा गए कदम ,गिरते गिरते बचे हम
उफ़ जिंदगी इतनी भयावह भी हों तुम ,
तन लथेड़ कर चल रहा और मुस्कुरा रहे है होठ..जिंदगी ये क्या है ?
ये तेरा कौन सा रूप है क्यूँ लगती इतनी कुरूप है
अगर वो खुश उस हाल है तो मैं महलों की रानी बन गयी..
जिंदगी तेरा सन्नाटा भी उन्हें देता जिंदगी ..
मेरे आस पास तो खुशियों का समन्दर है ठहरा ..
इन हवाओं की में शहजादी बन गयी
पल भर में लगा उपर वाले मुझे सब कुछ अता किया है कर दूँ उसका शुक्रिया ...
हुई आँख नम है ,इंसान कितना पानी कम है ,
जितना भी मिल जाये लगता उसको कम है ...
देखा जो हाल अब है ...जिंदगी मुहाल कब है ...खुश किस्मत हूँ सबसे ज्यादा ..
पल पल साथ रब है हाँ बहुत खुश नसीब हूँ मैं ...प्रभु बहुत बहुत शुक्रिया है तेरा ..
उठती है हुक दिल में दर्द ए दयार देख नग्न तन है उनके पानी का हाल देख ..
सहेज लो धरा को क्या छोड़ तुम मरोगे ,औलाद को प्रकृति से महरूम तुम करोगे ..
सम्भल जाओ अभी वक्त है ...प्रकृति को सम्भालो ...वर्ना खुद भी मरोगे ...
वंश बेल का तो सवाल खत्म है ..जिंदगी तू कितने रंग लिए बैठी है ..
वो भी तो इंसान है उनसे क्यूँ रूठी है ..उनसे क्यूँ रूठी है .-विजयलक्ष्मी .

कैसे समझाऊं मैं

मेरे हंसने से गुरज क्यूँ किसी के साथ भी हुआ ..
मेरी आत्मा के श्रंगार को भेजा सामान था ..
मुझे खुशबूओं के संग उड़ना मना किया ..
तितलियों को मुझसे मिलना गुरेज था ..
हंसने पे उसने मेरे लगाया था क्यूँ ताला ..
अपनापन इतना दिखाया था क्यूँ बता ना ..
मेरी साँस बंधकर रखी अपने साथ जेब में
मेरी आस को इतना बंधाया क्यूँ था बता ना ..
आ गया क्यूँ बीच में ये हिसाब मेरा है ..
तुझसे कुछ न चाहिए ..तेरा सिर्फ तेरा है ..
समझती हूँ मैं भी दुनिया की रीत को ..
कैसे समझाऊँ कह दे अब अपनी प्रीत को ..
नहीं कलुषता है मन में न दुश्मनी कोई ..
चाँदनी सी निर्मल ,गंगा सी पवित्र है ,..
उज्जवल धवल मेरा भी अपना चरित्र है ,
आज तक तो कोई दाग पाया नहीं कभी ..
आंचल को जिंदगी के फैलाया नहीं कभी ..विजयलक्ष्मी

जरा अब ढंग में आ जाओ

बरसात 3
******

बहुत हुयी बरसात चलो अब ढंग में आजाओ ,

कितना बरसोगे आज जरा अब बदल जाओ 

बहुत हुयी बरसात यादों को लेकर सुनलो अब 
लाठी ले लो साथ, वोट पे हों चोट सम्भल जाओ .

बहुत हुई बरसात ,बदली हवा बही क्यूँ हर ओर ,
सरकारी अत्याचार नाम भ्रष्टाचार कुचल पाओ .

बहुत हुई बरसात बातों बातों की बात कर सको 
राष्ट्रपति पद घात गर मिलकर भी बदल पाओ .

बहुत हुई बरसात ,हिटलर शाही सी है बात सुनो
लाठी है छोटी करनी है मोटी, सरकार बदल जाओ-विजयलक्ष्मी

शब्द कहाँ गिर गए देश के निर्माण के

कहाँ शब्द गिर गए देश के निर्माण के ..
आँसू पीते थे जो अपनी आवाम के ,
तराशने का मतलब कदाचित नहीं सब छोड़ दे ..
जिंदगी से अपनी इसकदर मुह मोड दे ..
चल उठ ,जरा तैयार हों ...बहुत आराम हों चुका 
दर्द सुन कराहटों का बढ़के आंसूओं को रोक तो ..
उस बहन की आवाज सुन जो तुझे पुकारती ..
ख्वाब बुन ,न भूल उनको मगर जिनसे जिंदगी बनी पूजा का थाल है 
क्या हुआ बस इतना ही था प्यार क्या अपने घर से तुझे ...
रोक उस सैलाब को बाँध कोई तो बना..
लिख कोई उन्वान माँ के आंसूओं से झांकता ..
देख दर्द नजरों में वो देह को नहीं जो ढांपता ..
कैसी प्यास जग पड़ी ये ? जो सुनती नहीं किसी तौर अब ,
आफ़ताब को मुखर होना ही चाहिए ...चल खड़ा हों 
तुझे तो मुझसे पहले चलना चाहिए ..
मुझे मंजूर नहीं ,तू राह अपनी छोड़ दे 
जोड़कर चल, न खड़ी कर दिवार...सोच घर कैसे चलेगा 
साथ चल चलेगे दोनों छोर से ..
सर्द रात ,तपिश बढ़ रही है ताप से ...
क्या करूं ? तोडना नहीं था ,जोड़ना है सबको अपने आप से ..
उफ़ ,सुन कहाँ खो गया ..कान में क्या तेल डाल कर के सो गया ?
तू नकारा भी नहीं ,बात है फिर जो ... वो बता ?. -विजयलक्ष्मी

सुन सखी


बरसात ..2
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सुन सखी , मेरी सहेली बन बन गयी बरसात ..
जीवन की अठखेली नई सी बात बन गयी .

जब नयनों में सपने सजते संग सजती बरसात
रंग बिरंगी दुनिया है ,कैसी रात सज गयी .

पिय को कह दो न झांके,नयनों में मेरे बरसात
नैहर में सपनों की सौगात, बारात सज गयी .

चल सजनी अब वक्त हुआ आईना करे बरसात
गल बहियाँ मैया की छैयां,मेहँदी सी रच गयी.

बापू मेरे करे न्योहरे ,भाई के सरहद पर बरसात
बहना रोती भर नैना ,सजनी, डोली सज गयी.-विजयलक्ष्मी

जाने क्यूँ चली आती है ...


बरसात
1.

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कभी कडवी यादों के संग कभी मीठे से लेकर रंग ,
जाने क्यूँ बरसात चली आती है .
रहती पल पल साथ, जीती हुई मेरी सांसों के साथ ,
जाने क्यूँ बरसात चली आती है .
कैसे कह दूँ सब झूठ ,फिर तुम जाओगे रूठ ,बहाना सी 
जाने क्यूँ बरसात चली आती है .
थमती सी रुक कर चलती जीवन की नैया मझदार, फिर 
जाने क्यूँ बरसात चली आती है .
कहती हूँ मिलकर जाना, जाने कब होंगा आना,सुन बात 
जाने क्यूँ बरसात चली आती है .
विजयलक्ष्मी 

Sunday 24 June 2012

चरित्र का हनन या गिरना ...


चरित्र का हनन ,या गिरना देखता है क्या ..
मुकरना अपनी बात से,कभी देखा है क्या ..
चरित्र बदल कर घुमते इंसानी शक्ल के बुत तामील है बहुत 
आता है मजा जिन्हें बातें बनाने में ..
युद्ध करते थे जो शब्द ओ  कमान से ..
कहते फिरे है गोया चला  मनुष्य ईमान से ..
देखा है चरित्र उनका झूठ को लिए ..
बदलते है रोज खुद को ,बेचते है जाने किस मुकाम के लिए  
ब्याह पीछे रोज सताते  दहेज को ..
न माने तो डर दिखाते भेज मुर्दा  बुतों को ..
आज वही चरित्र  की बात कर रहे ...पल पल जो चरित्र खुद का बदल रहे ..
ईमान उनका देखिये कभी भूनते है भुनगे से ..
और कभी बरसात बना हम ही  को खरीदते बेचते फिर रहे ..
वाह ईमान आपका खूब देख लिया ...
ली परिक्षाए कितनी ...बाकी शेष है ..
या जिंदगी कटेगी सत्य की अग्नि प्रवेश करते हुए ..
हाँ याद आया उन्हें जीतने का शौंकहै ...
तुम जिंदगी को जीतो मुझे मरने की दरकार..
देखतें है जिंदगी किसकी मुकम्मल यार ..
नमी तेरी अआखों में एक दिन तो आएगी ..
जिंदगी जब मेरी  कूच  कर जायेगी ..
बस वही आखरी दीदार होगा फिर ..
उस दिन देखना  नजरों में आँसू और धडकनों  में तेरी  इकरार..विजयलक्ष्मी .

.हे नारी अब बिकने को तैयार रहों..-











सम्मानित जाहिलों की दुनिया में कोई कमी नहीं ..
आज के दौर में हरिश्चन्द्र भी नहीं है ..
जिसने खुद को बेचा था सत्य के लिए 
बिकती है बेटियां अब रोटियों के लिए ..
ईमान गिर गया बदहवास जिंदगी 
इज्जत के नाम पे इज्जत ही बेच दी ..
वाह क्या प्यार है ...खाना खराब है ..
कभी सीता, सावित्री और अब कलयुग में नारी..
रुपयों के चंद सिक्के ,कुलघातीनी कुलक्षिणी .....
अबला या आबला ..गरीबी तिरोहिता कला निपुणा .. 
लाचार वल्लरी रोटीदायिनी ..मुक्तिबोधनी..
कलयुगी कालचक्र विनाशिनी..हे नारी अब बिकने को तैयार रहों..विजयलक्ष्मी                                           

Saturday 23 June 2012

अमृत कलश 3

अमृत कलश ...
सभी के चाहिए.. अमृत कलश 
दे सके सकूं जो.. अमृत कलश 
भर दे राग प्रेम तो... अमृत कलश 
शुचिता दे मन को ..अमृत कलश 
कर सके दे रोशन तकदीरों को ...अमृत कलश 
कराहटें औ कड़वाहटें मन से उगल दे ..अमृत कलश 
चल कोई मीठी मधुर बंशी बजा दे... अमृत कलश 
दुनिया को खूब सूरत रंग दिला दे ..अमृत कलश 
है कही ,कोई दिला दे ...अमृत कलश !!-विजयलक्ष्मी
.
शिक्षा वैश्यों के घर की गुलाम बन गयी है 
बिकती है दुकानों पर खुले बाजार है 
द्रोण भी बिके हुए कतिपय सफेदपोशों के हाथ 
धन की महिमा एकलव्य आज भी अंगूठा कटा रहा है 
द्रोण रुपी कसाई के हाथ ..
बिका ईमान है सभी कलदार के पुजारी 
क्या मानुष ,नेता ,बाबा और पुजारी ..
जिसके घर कलदार नहीं खनकता ..
उसकी बाते दूर उसकी परछाई से भी हर कोई डरता ..
ज्ञान को सबने दुकान दिखा दी ..
और शिक्षा वैश्या बना वैश्यलाओं में बैठा दी .
चल कोई नया राग गा अलख कोई नई जगा
स्वर्णिम हों देश कोई बीतराग गा
आ चल चले अग्निपथ है ये
तू साथ है तो गुजर है ..
रुक कर बैठना मत ..
माना जिस्म छलनी हुआ
आत्मा का राग है तू
देश को स्वर्ग बना चल चलते है ,सुन रहा है न .-विजयलक्ष्मी

आरती लेलो अब ..

चीखती नहीं आवाज चीरती है मुझे 
लहू की शिनाख्त कर सजा तो सुना ..
सूरज के घर अँधेरा क्यूँ है भला ..चल दीप जला दूँ एक 
क्यूँ चुप हों ...कटार घोंप कर दर्द का राग दे कोई ..सुर बजने लगे हैं 
आज चाँदनी को दरकार हुई है दर्शनों की, देव सो गए किस्मत को सुलाकर 
दीप जला दिया , मंदिर में आओ साँझ ढले की आरती लेलो अब .-विजयलक्ष्मी

रोटी की खातिर ...


कहने हों जग में "बेटी" बेमिसाल हैं 
हर "मातपिता" को होता बहुत दुलार है ..
फिर कैसी "ममता "की मारी ,बिक रही "बाजारों" में ..
बेचने वाले वही लोग जो रखते बंद थे "तालों "में ..
इक दिन जब "चुनरी "न पहनी डाट पिलाई "भाई " ने ..
आज एक "रोटी "की खतिर "बोली" लगाईं  "बाप "ने ..
जाने "फन "उठाया दुनिया के" किस पाप "ने ..
"रोग बीमारी "कुछ होता मार डालते ...
स्वार्थ हुआ है कितना अंधा ..आज उसी को हैं बेच डालते ..
पहले मारा "जन्म से पहले "फिर "रक्षक ने मार दहेज" के नाम दिया ..
एक "रवायत नई" चली है अब "रोटी की खातिर" नाम दिया.-विजयलक्ष्मी  

Friday 22 June 2012

चिल्लाहट क्यूँ


काले घोर बादलों सी गडगडाहट में चिल्लाहट क्यूँ ..

क्या वक्त हाथ से दूर कहीं बरस गया है बादल जाक
र .-विजयलक्ष्मी                                  

                                

राह कंटीली और पथरीली मंजिल हुई .












राह कंटीली और पथरीली मंजिल हुई ..
जा चला जा रास्ते तेरे काबिल नहीं
कुछ घूमकर सड़क मिल जायेगी ..
हिज्र में जीना ख्वाब बन के अब तू शामिल नहीं .
वक्त था तेरा कद्रदान हुआ
आज बेजा है बेखबर क्यूँ है
लापता सफर है अब देखो आज
मेरे कदमों तले जमीं भी बंजर,हरियाली शामिल नहीं
वक्त है पलट जा,राह चुन ले नई
तूफानों का जोर ,मिलना भी मुश्किल
शब्द काटेंगे फिर जख्म से लहू गिरेगा
खत्म होती दिखेंगी मंजिलें भी उनमें तू शामिल नहीं .                                      -विजयलक्ष्मी

हर शैह दुनियावी जानती है मुहब्बत को


हर शैह दुनियावी जानती है मुहब्बत को ..

एक इंसान ही बुरी बला है, मानता ही नहीं .
रहता है गुरुर में जाने कौन सा सुरूर है 
समझ के दरों पर ताले चढाये बिन ,मानता ही नहीं -विजयलक्ष्मी
बोझ कत्ल का उतरता नहीं आसमाँ पर चढ़ गया किसकदर 
समझ सके तो ,प्रस्तर मन ,नमी भी छूती नहीं सूनापन है इसकदर.
कल बहुत खेला किया खिडकी में बैठ, मगर सन्नाटा बिका नहीं,
कंकर भी उछाले ,जल रहे है ताप से, कुछ नहीं करता असर 
आंच पर सीधे पका ....रख दिया जैसे सीसा उडेलकर ..-विजयलक्ष्मी

जीने के लिए बेटियों का सौदा












   




                  
दुःख है कष्ट हुआ अपार 
सर झुक रहा है पढ़ कर..
वेदना रोती है बीच बाजार है ...
रोटी की खातिर पिता ही कर रहा बेटी का व्यपार ..
आती नहीं है लाज
बेशर्म हुआ समाज ..
अपनी ही देह के हिस्से को बेच रहा निर्लज्ज
ऐसी क्या मजबूरी ..
निकल घर से कर मजदूरी ..
हाथ पीले करने की रुत में धन सहेज रहा है ..
कितनी भी विपदा हों खुद को बेच.....
बेटी क्यूँ बेच रहा है ?
कुछ मजबूरी सच है कुछ को पैसे की ही लत है ...
कुछ सरकारी बाते है कुछ अपनी की ही घातें है
कुछ सफेदपोश शामिल ...कुछ को मारे है लाचारी
कहा गयी सरकार पेंटिंग खरीदने को धन बहुत
जनता रहे लाचार ,कैसे मिटेगा भष्टचार..
नुचती देह ...लाचार ढ़हती देह भूखी आँखों को सहती देह..
क्या हुआ सरकारी समान खो गया ...
या जनता ने पकड़ा गिरबान खो गया ..
उतारो इन्हें अब बाकी क्या देखना है ..
अब इनके हाथो बस खुद को बेचना है ..
और क्या क्या बाकी है अभी ..?विजयलक्ष्मी
गर्वित हों सके 
गगन से विस्तार पर 
गौण न हों जाएँ गणनाएं 
गणित की 
गम्य अगम्य पथ ढूंढ कर 
गमन कर सकें 
गीत हों 
गर्वीले
गुंजित हों 
गुलजार नगमों से 
गुनगुनाये हर कोई 
गम के अन्धेरें छू न सके 
गैरतमन्द इंसान 
गरिमामयी सभ्यता का सिरमौर बने 
                                                       गेरुए से रंग से रंगी सहर 
                                                       गौधूलि तक भी न छूटे 
                                                       गायब तम् हों 
                                                        गाते हों चिराग लकदक रौशनी से 
                                                       गीतों के मेले सभ्यता पर 
                                                        गर्व कर सकें 
                                                       गुंजायमान हों दिशाएँ 
                                                       गाथाओं से वतन की मेरे
                                                       गम्य अगम्य का विचार 
                                                       गौण हों जाये 
                                                       गगन सा विस्तार हों ,मेरा तुम्हारा और सबका .-विजयलक्ष्मी

Wednesday 20 June 2012

पैगाम ए मुहब्बत कभी था ही नहीं कहीं भी...















पैगाम ए मुहब्बत कभी था ही नहीं कहीं भी,

कुछ बंदिशें थी कुछ स्वार्थ बंद था शफक सिंदूर भी जहर रंग था ..
थे बेवकूफ हम ही  बस खुद को जला डाला ,
आग के सफर में तन्हाई के घर पे मौत एक खबर तक संग था ..
जिसको सजाया माथे अपना खुदा बना कर ,
कुछ न निकला वो सिर्फ एक धोखा औ सच में होली का रंग था ..
हम जलते रहे साँस दर साँस होके धुआं धुआँ ,
वो अफताब निकला चमगादडो के शहर का ,सत्य मेंरे ही संग था.. 
मेरा गुरुर टूटा झूठी थी मुहब्बत वो सारी ,
दिखावे की दुनिया उसपे भी नुमाया करने का इल्जाम ही संग था..
मालूम हुआ  है यम का साथ अब मुझे ,
न बहलाना अब किसी को कहना न कभी तुझपे प्यार का रंग था..
सच में है बाज़ार दुनिया हम सौदाई बन गए ,
हमने लगाई बोली खंजर भी अब रो  दिया  , कैसा अजीब ढंग था..
गर मौत को पुकारा अब, तो खतावार होंगे हम,
पूछेगा खुदा क्यूँ नम है आँख ,क्या मुहब्बत? कहाँ खोया ढंग था..  
आज सच में  शिकस्त हुई मेरी. ..कुबूल मुझे है , 
पाकीजगी दुनिया में बस नाम है ,यहाँ पकेजिंग का कलयुगी रंग था..
कुछ और हों बकाया चल वो भी देख लूं अब ,
शिव संग ब्याह भवानी की ख्वाहिश, चिता का मेरी अजीब रंग था.. 
चल छोड़ ,अब कुछ और बात कर, रहो आबाद ,
आसमां बहुत है, फलक फैला पड़ा है छोर तलक इतना ही संग था ..
मुझे कुंदन सा निखरने की चाह थी कोयला भई,
काजल की कोठरी में गए थे दुनियावी, कालिख लगने का ढंग था ..
शहंशाही आबाद रहे तेरी आखिरी दुआ हों कुबूल ,
रहूंगी यहीं, जाऊंगी नहीं लेकिन ,भूल जा जो देखा आज मेरा रंग था ..-विजयलक्ष्मी 

Tuesday 19 June 2012

मार दिया खुद को घुसकर भीतर ,

मार दिया खुद को घुसकर भीतर , 
खुद के ही समझ ले अब तेरे हथियार बे नजीर  हुए जाते हैं
सारी बंदिशें ही खत्म हुई फना होने से मेरे ..
बंद दरवाजों के  सांकल ताले सब अब तो बेकार हुए जाते हैं .
जेहन से निकाल मुझमें क्या रखा है
नींद हैं क्या चैन के लिए भी अब ,हम  इन्तेजार हुए जाते है ..
पटक लिया खुद को ही पत्थर पर
अब बाकी कहाँ हूँ ,पल पल अब बाजारी इश्तेहार हुए जाते हैं .
मौत को कर दी सम्वेदनाएँ दान 

पाषाण शिला  में तब्दील हों बंजर से खेत खलिहान हुए जाते हैं .
शब्द बाण व्यर्थ उड़ते से लगे हवा में
शाही किले की प्राचीर से हम ,अहसास खिदमतगार हुए जाते हैं. 

                                                           -- विजयलक्ष्मी