Wednesday 27 June 2012

कहीं मैं भी ....कवि न बन जाऊँ ..



कलम तेरी बनके, जुदा न हों जाऊँ
खुद से ,वक्त कुछ ऐसा आ गया है ,
खुद से ही अब ,डर लगने लगा है .
दुःख में दुखी सबके रहने लगे हैं
खुशियों पे ताले मजबूत लगने लगे हैं
चलते चलते सफर ये अजब सा
जिंदगी को ख्वाब सा देखने लग जाऊं
कहीं मैं भी ...कवि न बन जाऊँ ...

कवि अजीब होते है अपने से लगते
मगर खुद के भी नहीं होते है ,
जीतते है यूँ तो, दुनिया समझ लो
मगर खुद से ही हारे हुए होते है
समेटते है संसार कलम में अपनी
जिंदगी में खुद से ही बेजार होते हैं
यही खौफ अब मुझको सताने लगा है
कहीं मैं भी ....कवि न बन जाऊँ...

वैसे मैं खुद में सबसे जुदा हूँ ..
जिंदगी का खूबसूरत फलसफा हूँ
क्या हुआ दर्द सबको होता नहीं जो
कलम से ढलक कर रुकता नहीं जो
सफर चलते चलते ख्याल आ गया
जाने क्यूँ सोच में सवाल आ गया ?
ऐसा न हों कभी मैं भी बदल जाऊं ..
कहीं मैं भी ....कवि न बन जाऊँ .-=विजयलक्ष्मी

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