Monday 18 June 2012

जिंदगी आ गले लग ...मुझे तन्हा ..

हमसे रुसवाई थी या रुसवा करना था हमको ..
इल्जाम भी पाक दामन पर लगा ही दिया ...
मेरी नफरत जितना सोचूँ न करूँ  और गंदा रूप दिखला ही दिया ..
भड्वों की  शिकायत पर सत्ता का खेल खेला है ..
समाज का यही आइना है बाकी कुछ भी नहीं ..
पुरुष ...सामाजिक है या अराजक है ..समझने की बात हों चुकी ..
भावनाओं का तमाशा बस औरत  ही बन चुकी ..
जब भी कुछ अच्छा सोचने की  चाह जगी ..हर बार बात उल्टी चली ,
और तमाशा सा सजाया है ..छोड़ दिया वो दर ..जहाँ सबको बुतो की  जरूरत हों ..
मैं बुत नहीं ....बेगैरत भी नहीं ...इल्जाम ए बेवफाई ..बेवफाई का ख्वाब भी न देखा था ...
फिल्म बना डाली पूरी ..जनाजे को  शक्ल बारात सी  सजा डाली पूरी ..
आज खुशिया नाचती होंगी आँगन में तेरे ..मुझे मातम मिला खुश हूँ ,
जा खुश रह मुझे मौत भी मंजूर तेरी खातिर ..
मुहब्बत की  रंगत देख अब...... जब बदलती है तो क्या रंग चढता है ,
कलम चलना रुकेगी न ..मौत भी लिखेगी अपनी ...
लिखेगी स्वार्थ सिद्धि की  कहानी भी ,
किसी औरत  के दर्द की  अलग सी निशानी भी ..
मालूम है कोई भी न होगा संग मेरे ..
रंगा है कुछ रंग ऐसा नफरत जमने लगी दिल पर ...
भूस्खलन  में गिरा मलबा कारण मैं बनी हूँ ...
भावना के तांडव का कारण मैं ही बनी हूँ ..
नजर से गिराने का कारण मैं ही बनी हूँ
मैं एक औरत हूँ 

हर इल्जाम है मुझपे बस तू है पाक दामन आफ़ताब ,सूरज सी चमक है ..
मगर दाग है समझ आया है अब कैसी आग है ..
दर्द नहीं है पछतावा सा है भी नहीं भी ..
औरत दर्द की  कहानी है सदा से ..
पुरुष की मलिका होकर भी  नौकरानी सी है सदा से ,..सृजन की  पूरी हिस्सेदारिणी ..
बनी है आज व्यभिचारिणी ....ममता की  देवी ...मस्तक पार आज दाग है ..
जलती है खुद में भीतर  कैसी लगी आग है कलम रूकती नहीं ..
नींद  आँखों में फटकती नहीं ..
पूरी शब और सहर सब एक जैसी लगे है ...सूरज की  रौशनी में अँधेरा दिखे है ..
आंसूं नहीं है सन्नाटा है ...सुनापन कहूँ या खैरात सी जिंदगी सा अहसास है ..
अनजानी  दुनिया बहुत उदास है मगर  मेरी अपनी तो है ...
जिंदगी आ गले लग .....मुझे तन्हा  ही जीना है .--विजयलक्ष्मी 

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