Sunday 1 July 2012

क्या टूटने के डर से ख्वाब देखना छोड़ दूँ .

क्या टूटने के डर से ख्वाब देखना छोड़ दूँ ...
मौत के डर से जीना छोड़ दूँ ..
पतझड आयेगा जीवन में ..रंग भरना छोड़ दूँ ..
जानी है सांसे इक दिन तो लेना छोड़ दूँ ...
इंसान हूँ भला कैसे कोशिश छोड़ दूँ ....
..

तुलिका उठी है तो कोई रंग तो भरेगी..
आंगन को थोडा ही सही रंगीन तो करेगी ,
कुछ और न सही लहू संग सिंचेगी
तुम भूल गयी हों अपने बचपन का आंगन
नए साम्राज्य का दम्भ ,वाह ..
..
अधिकार का कितना घिनौना रंग
तुष्टि अपनी ,सखा के घर उजाड ..
करो मन लगती सी बात और पीछे करती हों घात ...
उजाड़ने का सभी समान साथ है ..
बस कुछ मीठी मीठी सी बात है ...
..
स्वार्थ की खातिर सिंहासन पे बिठा दिया ..
उसी के घर को उजाड़ बना दिया ..
कैसी है ये प्रीत, कैसी दुनिया की रीत
अपने घर का शासन देकर जड़ से जुदा कर दिया
वो कैसा नादान समझा न अब भी राज ...
..
..जल डालना है गमलों में मेरा कर्म है
जंगली पौध इतनी आसानी से मरती नहीं है ..
बंगलों के पौधे ही सुना है मर जाते है जल्दी
वो पोषित होते है माली से ..
जंगली बयार ढूंढ ही लेगी राह अपनी ज्यादा न सोच
..
सोचा जिन्दा सा हूँ किया है बसेरा ..
कुछ रंग भर दूँ मौत से पहले ..
यादों को कुछ काले श्वेत ही सही रंग दूँ ..
जो जिसके साथ वही देकर जाता है ..
खारों के संग चुभन तो होगी ..
..
जाने कब बुलावा आ जाये
पुनर्जन्म फिर हों पावे की न हों पावे ..
हाँ ,सच है आँगन सुंदर है सखी ..
मन भाया था ,सच है झूठ कैसे कह दूँ
अब क्या और कहूँ तुझको गर न समझो तो .......-विजयलक्ष्मी 

1 comment:

  1. wow ! woow ! woow !
    full of energy.....to motivate a person
    aaj mein jina sikhati ye kavita ....urja strot dikhati ye kavita bahut hi khubsurat hai !!
    Badhai.....itni safal rachna ke liye !!

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