Sunday 8 July 2012

ऐसे शिल्पी कम है..

अनगढ़ से शब्द ,
कागज पे छितरे है 
बेतरतीब से ,
कह जाते है फिर भी
अपनी बात
नासमझ तो है वो
नादान भी है ,
शब्दों को पता है
उनमे तीखापन भी है
प्यार भी छिपा है
फिर भी
सब नहीं पढेंगे उनको ,
कोई हिकारत से बांचेगा
और भूल जायेगा
उन्हें तराशेगा नहीं कोई
हाँ ,जो समझेगा शब्दों को
जानेगा मर्म को उनके
पक्का निहारेगा जरूर
ठिठकेगा भी जरूर ,
हों न हों तराशने भी बैठ जाये ,
और शब्द निखर जाये
एक नए से अंदाज में
दुल्हन की तरह ..
ऐसे शिल्पी कम है..
फिर भी इन्तजार तो है
अनंत के उस छोर तक
सिर्फ उसी का ....
अब आ भी जाओ तुम !! -विजयलक्ष्मी

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