Saturday 18 August 2012

कौन ख्वाब देखूं करूं किस्से गिला ...

गर खुद पर ही शक होने लगे ,
जिंदगी खुद से ही अब खोने लगे ,
कम लगने लगे शब्दों की किताब ,
अब चुप्पी भली लगने लगी है हमको ..

बियाबां हों गयी है हर राह अब तो ,
जिंदगी की राह खोने लगी है कहीं ,
सवाल ही सवाल है हर तरफ क्यूँ ?
खुद में लगा सवाल बन गए हैं हमतो ..

किस राह जा रहे थे अपनी धुन में हम
किस मोड मुड गए क्यूँ हम ..
कैसे बताए कुछ भी बडी उलझन है ,
खुद से भी लग रहा है बेवफा हुए अबतो.

कौन ख्वाब देखूं करूं किस्से गिला अब ,
ये कौन सी है मंजिल कुछ नहीं पता अब ,
किस्से क्या कहूँ ,कहाँ खो रहे हैं हम ,
तन्हा हैं सफर ,मिली कौन राह हमको .- विजयलक्ष्मी

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