Tuesday 18 September 2012

ठेलती है जिंदगी किस तरह से


छोड़ कर बस्ती चला तो जायगा ..
जाने से तेरे क्या कुछ बदल पायगा 
कातिल लोक लाज भी यूँ चलेंगी उम्र भर 
जिंदगी का सिला बस गिरता ही जयगा 
आज एक है खड़ी कल मेला लग जायेगा 
जा तुझे जाना है .....तू सभ्य हुआ अपने लिए 
पाया ही क्या है ..जो देता चले 
नफरतों की आँधियों में बह जायेगा 

तख्तियां दिखी न दिखे टूटते ही मन
जिंदगी से झूझते हुए रोते कल्पते हुए मन ..
तन जिन पर कालिख पोत गया कोई
फिर तुझ जैसा आयेगा ...जन्मेगा ..भाग जायेगा
काश .....तडपता दिल तेरा देख पिघलता लहू दिलों का देख कर
जिंदगी और मौत को आपस में लड़ता देख कर
नग्नता क्या है ..भूख्र की हकीकत जानकर
ठेलती है जिंदगी किस तरह से
लाश चलती है सड़क पर लथेड कर.-- विजयलक्ष्मी 

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