Monday 23 September 2013

अबूझ चलता है कल्पतरु की इच्छा लिए

जीवन का लक्ष्य क्या सत्य है असत्य क्या 
या पाना जीवन को पूर्णता से किस ठौर 
या सह जाना जीवन को कठोरता से जिस तौर 
नियमित नियम सा बन जाना हर छोर 
खो जाना स्वप्न सजीले सतरंगी या सहरा से सुदीप्त 
या प्रचंड ज्वाल ज्वाला ज्वलित हो जीवन को जला रही हो
या श्वेत वर्णा हो श्वेत हो गयी परीक्षा ज्वलंत 
आशावादी चोला और भीतर से निराशा लिए विचार 
अजब सी पहेली रासायनिक सहेली 
समवेत स्वेद कण जीवन का सार 
कदम चले उठ
स्मृति स्मरित साथ साथ अबोध सा गर्व गुजित गगन
मन वीणा झंकृत सप्त स्वर सुरीले या अवसाद युक्त
मैं में मैं ही नहीं या अभिभूत समाहित सी विलग
किस पथ चलना पथिक पहचान नहीं
अबूझ चलता है कल्पतरु की इच्छा लिए
तप पाप सत्य असत्य ज्ञान-अज्ञान का अभिमान लिए
विचर रहा जग में जगत जगदीश जन जन में जनचारित अनेक से नाम लिए
क्षण भंगुर जीवन क्षणिका के वशीभूत हुआ
प्रीत विरह मिलन भावों से घनीभूत हुआ
समय चक्र बेल सा बढकर चढ़ता चला राथिवान सा
अंत समय तक रहा ढूंढता अमन चमन के बागवान सा
मैं ही हूँ मैं नहीं कहाँ ..मैं में मैं घनीभूत हुआ
भूल गया छकड़ी सारी नून तेल लकड़ी के वशीभूत हुआ
न सागर न नदिया तीरे नीर नयन अवतीर हुआ
चल छुट गया जमी से जीवन इहलोक उड़ान शमशीर हुआ
अन्तरिक्ष पटल पर परिलक्षित किसने किया
स्वर्ग नर्क कहाँ कैसे वशीभूत चिन्तन चित्त प्राचीर हुआ .- विजयलक्ष्मी

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