Saturday 19 October 2013

चाँद चल ही दिया आखिर





चाँद चल ही दिया आखिर
कितने ख्वाब रुके थे उसकी पलको पर 
वक्त वक्री गति लेकर गुजरा और इन्तजार और भी लम्बा हो गया 
जानती हूँ तारो की छाँव में ओस से मोती समेटे होंगे तुमने भी 
कुछ याद बाक़ी है अभी शेष 
दीखते अवशेष हैं शिकस्ता हुए सहर के खण्डहर पर 
कुछ हिचकियाँ भेजी जो तुमने सम्भाल कर रखली बंधकर खुद में 
खोलेंगे उन्हें फुर्सत के लम्हों में ...दिन दोपहर जब ख्वाब सब खो चुके होंगे 
तारे नींद की आगोश में सो चुके होंगे ...जुगनू से अहसास चमकते होंगे
इतिहास दोहराता है खुद को हमने सुना था ...
फिर लौटता क्यूँ नहीं वक्त वो पहला सा
जब लहर लहर उन्माद सा था और ख्वाब जगाते थे तुम्हे वतन के नाम पर 

कैक्टस के कांटे भी महकते रहे थे उसूल सा
और बिफरते थे तुम किसी नेता की खोखली सी बात पर
सोचती रही खत लिखूं तुमको ...मगर नहीं लिखा
क्यूँ लिखूं ...और क्या लिखूं ..बताओ ..
तुम कभी बताते ही नहीं खत मिला भी या नहीं ...
हां ..डाकिये से चर्चा हुयी थी कल भी तुम्हारी और वो भी हंसकर टाल गया
नहीं मालूम ये इंतजार अभी और कितना है बाकी
आँखों ने देखा होगा नजारा ...कान बेजार क्यूँ होने लगे हैं आजकल
कदम ठहर से जाते है बढ़ते बढ़ते ..क्योकि तुम रोक देते हो हमेशा
गहमी सी सुबह है लेकिन सूरज अभी दिखा नहीं ...बादल गहरे हैं .--- विजयलक्ष्मी

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