Sunday 6 October 2013

मगर ये तय है ..कुछ न कुछ तो है

भीतर धधकता है कोई अंगार सा ,
बरसता है कुछ जलधार सा 
मरता है मौत को गले लगाकर कही हिज्जो में ,बहकता है बहार सा 
दहकता भी है सूरज बनकर ,
छ्नकता भी है ..चहकता है पंछी सा 
कभी उदासी की चादर ओढ़ता है कभी खिलखिलाता है उपवन सा
इठलाता है तितिली सा
कभी गुलों की तरह खिलकर मुरझा जाता है फिर कभी न खिल पाने के अहसास से
कभी मुस्कुरा उठता है जिन्दगी बन .
कभी रंग मौत का लिए
कभी जंगल में भी मंगल कभी लगता है महफिल में तन्हाई का आलम
कभी रुसवाई का डर भी तो कभी जगहसाई का
कभी लगता है मर जायेगे यूँही तो धडक उठता है जोर से
कभी छुपना चाहता है तुममे तुम बनकर कभी हमारा अहसास बनकर
जिन्दा खुद में नहीं जितना तुममे उतना ही जिन्दा होकर ..
कभी तैरता है उसी समन्दर में जो बहता तुम्हारे और मेरे अंदर में
कभी चटकती धूप सा कभी बरता है घुमड़ता बादल सा
कभी लगता सयाना सा ...कभी आवारा पागल सा
भीतर कुछ न कुछ तो है ..ये तो तय है
नहीं मालूम मुझमे बसी ये कौन सी शैह है
मगर ये तय है ..कुछ न कुछ तो है ..
जिसे चैन नहीं किसी किसी पल कभी लगता है दुनिया क्यूँ पागल हो रही है
कभी सुकून के मेले .. कभी झंझा से झमेले है
अजबी सी दास्ताँ है अलग सी कुछ बाते कटने लगी है जागकर राते .
कभी नींद भी जैसे नीम बेहोशी ..
या गोलिया खाकर बेसुध देह छोडकर रूह चली जाये ..
कभी मंजिल है हाथभर की दूरी ..कभी मामला सैकड़ो कोस का पूरी
गिनती बहुत मुश्किल ..आसाँ भी भूलना और मुश्किल कहूं कैसे .- विजयलक्ष्मी 

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