Sunday 6 October 2013

वक्त को पकड़ने की चाहत ने जगा दिया ख्वाब से पहले



वक्त को पकड़ने की चाहत ने जगा दिया ख्वाब से पहले
और सूरज का इंतजार हुआ चाहता है जाग जागकर यहाँ
बात कल की वक्त से पिछड़ कर खामोश से बीतते दिवस को देखा किये अकेला बैठकर
और जिन्दगी को जाते हुए देखा था खुद को लपेटकर
भोर का सूरज निकलकर पूछेगा नैनो से ख्वाब खोये क्यूँ 

ये बता जब साथ था नूर मेरा फिर तुम रोये क्यूँ
कैसे कहूं हर लम्हा उजाले का भी तुम बिन लगे है घनेरी रात सी
और जब मुस्कुरादो तुम नजर में बैठकर रात गहरी भी खिले उगते हुए जज्बात सी
आओ सूरज का स्वागत करें मुस्कुराकर झूमते गगन और खिलते फूल है धरा पर
भोर चिड़ियों को बुला रही है स्वागत गीत गाने के लिए
भावना लिए सौम्य से स्नेह सज्जित स्वप्न सच बनाने के लिए
और अम्बर शर्म से सिंदूरी सा हुआ मिलन के अहसास से
नदी स्नेह की बह उठी ,, खेलती है लहरे प्रथम किरण के सलौने अहसास से
मंत्रोच्चार के साथ घंटी बज रही है मन्दिर में जैसे
अनुपन छटा सी उतरेगी अंगना में मेरे मुस्कुराता है तुलसी का पौधा
.- विजयलक्ष्मी 

No comments:

Post a Comment