Friday 13 December 2013

चल पड़े नंगेपाँव ही...

खुशबू उडी अहसास की दूर तलक नजर गये 
लकदक महके इसकदर की गुलशन संवर गये.

कुछ तारीकियों के साए तन्हा से रोके हुए राह 
बंद हुए खुद में औ सितारे फलक पर संवर गये.

कुछ नज्म गूंजती सुनाई देती थी कभी कभी 
रुबाइयों संग साज-स्वर सरगम के बिखर गये .

थिरकन देह की वाबस्ता रूह से रूबरू हुयी ऐसे 
भ्रमर गीत गूंज उठे तितलियों संग निखर गये.

मंजिल से वाबस्ता राह की तलाश में भटकते हुए
चल पड़े  नंगेपाँव ही... ,जाने कितनी डगर गये - विजयलक्ष्मी

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-12-2013) "नीड़ का पंथ दिखाएँ" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1461 पर होगी.
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
    सादर...!

    ReplyDelete
  2. rajeev kumar ji स्वागत है आपका एवं आभार !

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    पोस्ट का लिंक कल सुबह 5 बजे ही खुलेगा।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-12-13) को "नीड़ का पंथ दिखाएँ" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1462 पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  4. wah ! pehli baar apka likha padhne ka mauka mila....bahut bahut sundar

    ReplyDelete