Saturday 29 June 2013

बेवफा थी ही नहीं हमारी जिन्दगी कभी





बहुत बेजां तर्ज पर घर टूटा है हमारा ,
भरोसा है मगर कि दामन छोड़ता नहीं 
बेवफा थी ही नहीं हमारी जिन्दगी कभी
खौफ मौत भी अब तो मुझे तोड़ता नहीं.
- विजयलक्ष्मी

भूख उगी सत्ता के घर में


सुनता है बहुत कुछ ,
आसमान को चीरती वो आवाज 
जिन्दगी के हर फलसफे को पहचान देती है 
लोकतंत्र की हर सीढ़ी पीढ़ी दर पीढ़ी चढती है 
देख रही लगातार लिखा नाम सत्ता पर अपना 
बिकती दुनिदारी दुकानों पर 
यहाँ तो सच का परचम  लहराता है ..




खेतों में धन घोटालों का नहीं आता है 
राशन कार्ड भी चावल मिलते है खोटे..
गेहूं छोटे और तेल की मारामारी है 
भूख उगी सत्ता के घर में ....रोटी मिलती उनको सरकारी है 
चुप है जनता मत समझो व्यर्थ बस जरा सी लाचारी है 
ये खेत सूखते है बिन बिन बरखा के ,,,
ट्युवेळ लगवाते थोड़ी पैसों की लाचारी है .

- विजयलक्ष्मी

हाथों पे दीखता है बिन खुदे ही मेरा नेता चोर है

हर आढ़तिये की भी तो अपनी लाचारी है 
सरकारी दुकानों पर भी मारामारी है 
राशन की लम्बी कतार बहुत बड़ी बीमारी है 
राशन की दूकान भी तो सरकारी है 
वोट का नम्बर बिकता है दो वक्त की रोटी में 
कुछ रोटी देती है बेटी लाचारी में 
दलाल बना है माली खेत को खाता है
कोई करेगा क्या जब बाप को बेटी पर तरस नहीं आता है
दूकान नेताओ का पुराना व्यापार है
ये तो साइड बिजनेस है असली धंधा कुछ और है
ज्यादातर जनता के

हाथों पे दीखता है बिन खुदे ही मेरा नेता चोर है .- विजयलक्ष्मी

वक्त की बात है सारी दोस्त

निशानी, कहानी ,और एक बूँद आँख का पानी 
आदत अदावत शिकायत जख्मों पे हँसने की नादानी ..

खफा सवालों से ख्वाब अकेला यूँ मायूस क्यूँ कर हुए 
जख्म छोटा बड़ा बस जख्म है न ,देता है राह ए रवानी .. 

वक्त की बात है सारी दोस्त कोई खुद न समझ पाया 
कोई बताता है खुद को हिस्सा ओ किस्सा किताबात इंसानी
.- विजयलक्ष्मी

Friday 28 June 2013

खौफ नहीं अदब है बस ,काँटों से डरते नहीं

सत्य को साधन नहीं मुकम्मल राह की तलाश है ,
जिंदगी तूफ़ान सी ,मद्धम सी इक आस है ,
किसने आशा को खो दिया किसने कहा निराश है ,
पंचांग में बस शब्द है बाकी तो कुछ भी नहीं ,
तलवार धार को मगर लहू की प्यास है ,
जिंदगी अब तू जुआ सा हों गयी ,
ताश के पत्तों का घर कोई पत्थर बताकर चल दिया ,
मंजिल की फ़िक्र वो करे जिसे खुद पर नहीं विश्वास है ,
एक दिन की बात क्या जो अनवरत ही साथ है ,
कायरों की बात क्या मैदान ए जंग से भाग खड़े होते है जो ,
उसपे तुर्रा लड़ने की बताते नई ये रीत है ,
रास्ते सीधे नहीं हैं ,सेंध लगते चोरी से ,
हमको मगर उस हाल में भी पीठ दिखाना भाता नहीं ,
मौत भी मंजूर है ,लहू के धरे बहे ,,,
झंझावात उठा दें एक ही हुंकार से ,
छोड़ दे दुश्मन मैदान एक ही ललकार से ,
खौफ नहीं अदब है बस ,काँटों से डरते नहीं ,
अपने घर में खुश बहुत है औरों पे कब्जा करते नहीं
..विजयलक्ष्मी

एक अदना सा इन्सान ..

न आफताब हूँ न मैं महताब हूँ ,
काटों भरा हूँ गुबार हूँ ,नहीं गुलाब हूँ 
न बरगद हूँ कोई जो छाँव दे किसी को 
मैं कडवा भी हूँ मगर न नीम न करेला 
चाँद के साथ खिलता क्यूँ न ख्वाब हूँ
न तरन्नुम हूँ न तराना न अलाप हूँ 
स्वरलहरी बिखेरे जो न कोई ऐसा राग हूँ 
रौशनी न दे सका अँधेरी राहों का नहीं चराग हूँ 
बुत भी नहीं हथियार भी नहीं हूँ मैं 
न नेता न व्यापारी न कोई अधिकारी 

एक अदना सा इन्सान ..
जिसकी आकांक्षाये छूती है आसमान
जो रच देता है पत्थर में भी भगवान
एक हवस जिसकी रच देती मानवता का कफस
एक नफरत की चिंगारी भस्म कर देती दुनिया सारी
एक पावन सी मुस्कान खिला जाती कायनात
हिला जाती भगवान ...विनाश मिटाती धरा को भी
और ...सृजन रच देता है जिसका धरती पर भी स्वर्ग सा संसार
.- विजयलक्ष्मी

यहाँ आदमखोर भी है

भूख ही भूख पसरी पड़ी है...
यहाँ से वहां तक हर सडक हर चौराहे पर 
दरवाजे से लेकर दूर खुले मैदानों तक कोयले की खानों तक 
कही राशन की लम्बी कतारों में 
कहीं गिनती बढाती अनाथालयों की दीवारों पर 
नौकरियों के लिए बढ़ते हाथों में प्रार्थना पत्र के साथ चिपक कर 
विद्यालय में शिक्षार्थ जाती दुकानों के रजिस्टरों में 
न्यायालय के बाहर खरीदते बिकते न्याय के मचानों पर 
पेशकारों की मेज के नीचे भी उगती है भूख 
सरकारी तन्त्र की भूख चपरासी से लेकर आलाकमान तक पहुंचती है सरकार तक
बहुत लम्बी है भूख यहाँ ..
किसी और देश की भूख क्या खाती है नहीं मालूम
जनता भूख के कारण पसीना बहा रही है तप रही है चटक धुप में
सुनहला तले जाते है सूरज की कढाई में दिन भर
कुछ चोरी करने को मजबूर है कुछ चाकू खंजर उठा रही है
भूख नक्सलवाद भी बढ़ा रही है
भूख ही आंतकवाद का नमूना दिखा रही है
सबकी भूख अलग अलग है ..
यहाँ रोटी की भूख तो आम जनता को होती है
नजर की भूख बेचारे दिल के मरे ढूंढते है सहारे
मगर कुछ भूख बहुत खासमखास होती है ..
राजनैतिक रोटी इस आग पर सिकी खाती है
किसी को धर्म की भूख इतनी है इंसान इंसान को मार कर खा रहा है
किसी को धन की भूख है
किसी को सत्ता की भूख है इस कदर अपना अपने को खाने को मजबूर है
भेड़िये छिपे है यहाँ इसानी शक्ल में तन की भूख है जिन्हें
यहाँ आदमखोर भी है
योगी भी है भोगी भी ..भक्त है यह कुछ बने भगवान भी है
पूजने की सुनी थी यहाँ पुजने की भी भूख है
किसी किसी को भूखी हंसी भी नहीं भाती..उसे भी उजाड़ने की भूख है
जिस दिन इस भूख को भूख लग गयी क्या होगा
उस दिन उत्तराखंड के प्राकृतिक हादसे से बड़ा कोई हादसा होगा
जहां मानवता का विनाश होगा ..
सम्भल जाओ ..धन लालसा को इतना न बढाओ ..
भूख बढ़ानी है तो छीना झपटी की नहीं ..
मानवता के दुश्मन न बनो अपने खेतो में सौहार्दय का बीज डालो
कथा सुनो व्यथा मिटाओ ...बस नफरत की भूख मत बढाओ
.- विजयलक्ष्मी

सम्भाल अहसास का धागा

विजय, सम्भाल खुद को ...
यूँ न उजाड़ खुद को 
जिन्दगी पल दो पल की नही है 
थोडा रुक और सम्भाल खुद को 
ये तो मौके बेमौके तूफ़ान आते ही हैं वक्त के 
यूँ तोड़ ...बस अब जोड़ खुद को 
विजय ...अब बहुत हुआ ...
सम्भाल खुद को ...विजय
अपने भरोसे को यूँ नहीं तोड़ते 
सृजन को विनाश की तरफ नहीं मोड़ते
अपने ध्यान से इतर क्यूँ है ..
तेरा ध्यान जाता उधर क्यूँ है
साधना को साधन बना अपना
खोल मन के चक्षु ..
अक्ष पर बिम्बित कर नक्श को
और सफर पर चल
धारकर धीरज सा गहना
विश्वास भी नहीं छूटा ..
बंधन भी नहीं झूठा ..
फिर बता बदहवास क्यूँ है
विजय ...दिल की आवाज सुन
उसी से ख्वाब बुन..
सम्भाल अहसास का धागा
लगा पाक सा वहीँ गठबंध ..
होकर सद्यस्नात ..चल डूब जा समन्दर बीच
पार न उतर ..न रहना है इधर ..
क्षति ग्रस्त न कर न तोड़ विश्वास
सम्भाल अपनी आस ..
चल कदम बढ़ा ..
चल सम्भाल खुद को
मुस्कुरा फिर एक बार ..
जिसको करना है करने दे यार
तू खुद न बदल
अपनी डगर चल
उसी भरोसे से ...
तू वही है ...बदल मत इस तरह न कमजोर है
न होना है
बस अब नहीं रोना है
न खुद पर से न .....विश्वास खोना है
कदम दर कदम चल मिलाकर कदम से कदम .- विजयलक्ष्मी

Thursday 27 June 2013

मनभावन संग भीग रहे हम बरखा में .


उस दिन, चाँद जब मना करेगा आंगन में आने को बाहर ,

सूरज चमकेगा जब और चांदनी मर जाएगी जिस रात.
- vijaylaxmi 








बह रही है रसधार मुसलाधार और हम भीग रहे है बरखा में ,
बदरा बहुत झूमकर बरसे मनभावन संग भीग रहे हम बरखा में .

- vijaylaxmi 

बजेगा जो राग मन वीणा बजेगी


व्यथा को कथा बना दो ,
साथ में उसे गीत सा गुनगुना दो ,
स्वरों में गमगीनियत मांगते तो हैं मगर 
जिन्दगी को उसमे लाकर बिठा दो 
बजेगा जो राग मन वीणा बजेगी 
हृदय थाप पर ताल संग लहरा दो .
- vijaylaxmi

जली है दुनिया सवाली सी

एक भूख का सागर देखा एक नदी अलबेली सी ,
प्यास उतरती आसमान से ,उडती धरती पर खाली सी 
वो कौन फरेब न्य सा होगा जाने रात अँधेरी में 
जब जब आंधी चली खामोश ,जली है दुनिया सवाली सी
.- vijaylaxmi 

बात कहे जा आइना !!

मुहब्बत गर हर्फों में बयाँ होती, हरूफ हरूफ लिखते ,
मैहर में मांगनी पड़ी तुम्हे तो तुम्हारी ही मेहरबानी थी
.- vijaylaxmi 


शैदा समझती है आज भी दुनिया जिसकी खातिर मुझे ,
वो दबी जुबाँ से भी कभी शनाख्त ए शनासाई कबुलते नहीं .
शहाब है वो जमीं पर शहामत से है उसकी वाकिफ 
साहिबे अख़लाक़ ओ साबिर, पनाह शहर खमोशां में कबुलते नहीं
.- vijaylaxmi

आइना सी बात चुप सुने था कोई 
हर अपनी सीधी सटीक लगे जितनी 
उससे भी खूबसूरत 
बात कहे जा आइना !!
.- vijaylaxmi 

भावना होगी तो उठेगी

हर पदार्थ अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचकर बिखरता ही है ,
पत्थर को तराशना जरूरी है अन्यथा मूर्ति मूर्त रूप नहीं लेती 
उसे पूजना है सजना है या प्राणप्रतिष्ठा करनी है 
जानता सृजनहार है केवट किन्तु नैया का खेवनहार है 
आंसू गिरेंगे तो बहेंगे ,,भावना होगी तो उठेगी 
धरती महकेगी गुलों से ..सूरज है अँधेरा हो क्या ये सम्भव है
.- vijaylaxmi 

रुनझुन बरखा बरस रही संग मेरे अंगना

स्वर टूटे नहीं है बांसुरी अधूरी नहीं है ,
दीखते छिद्र उसके स्वरों को देते है पूर्णता 
बिन दर्द सरसता कहा उठती है गीतों में 
नाचती है जिन्दगी भी लिए संगीत सी समरसता
विरह वेदना निखर निखर बिखरे जब नयनों से 
गूंजते कितने स्वर विह्वल से रंग लिए हो सार्थकता 
रुनझुन बरखा बरस रही संग मेरे अंगना 
सुनहली सपनीली सी एक सुरीली गीतों की अभिव्यंजना
.- vijaylaxmi 

जिन्हें पेशानी पर बूँद दिखती है

जिन्दगी की जद्दोजहद में पसीना सा लहू बहा करता है अक्सर 
जिन्हें पेशानी पर बूँद दिखती है वो यूँही खुद से पूछा करते है अक्सर 
हर वाद और वाद का टकराव हर बार रूप बदलता है अक्सर 
जिन्दा जिसे कहती रही दुनिया मरा सा मिलता है तन्हाई में  वही अक्सर .- विजयलक्ष्मी
     

Wednesday 26 June 2013

चलती कलम से रूख ए दिल ए हालत पता करें

इन्तजार ए दीदार में बैठे रहंगे उनकी ताउम्र ,
रहमत उस खुद की चाहिए हमे वो लम्हे अता करे 
जिन्दा रहे सलामत जिन्दगी उनकी ताउम्र 
किस दर पे झुकके मिलेगी ये नियामत पता  करे 
मुझे मंजूर है हर सजा मुकर्रर उनकी ताउम्र 
बांधेगे कौन वक्त हमको ,जरा मांजरात पता करे 
इन्तजार ए बावफाई  निभे  उनकी ताउम्र 
हक औ उतूत उनके मिल जाए हालात पता करे
चाहत में बसा है बाताअरुर्र्फ़ उनकी ताउम्र  
अकीदे में बैठ उनके अकीदत ए हालत पता करे 
रंग ए वफा सरापा हुआ ज्यूँ उनकी ताउम्रअ  
चलती कलम से रूख ए दिल ए हालत पता करें .- विजयलक्ष्मी 

Monday 24 June 2013

ढूंढ रखना रूह को भी,,,

तेरी मुंडेर ने रंग बदल लिया है अपना ,,,
बता ,,कैसे उतरती चाँदनी आँगन में तेरे .

दाना तो खूबसूरत है जाल बिछाया क्यूँ ,,,
गौरैया को क्या कैद करेगा आँगन में तेरे .

तमन्ना ए जिंदगी न खत्म हों जाये मेरी ,,,
सम्भल ए जिंदगी, थमे कैसे आँगन में तेरे.

तोड़ कर राहों को फेकता है अक्सर खुद ,,,
कोयल चहकेगी कैसे बताना आंगन में तेरे .

जो रुखसती चाहता हों खुद ही खुद से भी ,,,
क्यूँ डाल पर नहीं बैठने देता आँगन में तेरे .

न हों मर गयी तो ...ढूंढ रखना रूह को भी ,,,
समा लेना पिंजरे में रखना आँगन में तेरे..
-- vijaylaxmi 

भगवान को भी पत्थर बना बैठा दिया गया

देशराग गाओ मिलकर स्वर जरा मिलाकर ,
आज देश खड़ा है एक बार फिर विनाश के कगार पर 
किसी को नहीं है चिंता ये आपदाए क्यूँ सर पे आ पड़ी ..
जिसको भी देखिये बस अपनी अपनी पड़ी ..
कभी टैक्स वसूली करो कभी कीमत बढाओ सामन की 
जीने नहीं देना गरीब को... जान लेलो किसान की 
पूजा धर्म के नाम पर पाखंड हो रहा ..भगवान को भी पत्थर बना बैठा दिया गया 
बेमौत मर गये कितने फायदे की दूकान पर 
कटते रहे अंगुंठे यहाँ आरक्षण के नाम पर 
अर्जुन बन गये सभी धन्नाओ की औलाद ..कर दिया जिन्होंने देश बर्बाद 
खरीदे हुए ज्ञान की भरपाई के गमले मेज के नीचे ही लगेगे 
जो खरीद कर लाये है खुद भी बाजार में बिकेंगे .
मिल जाये कुछ फक्कड उन्हें पकड़ लाओ ..
लालचियों से तो कम से कम इस देश को बचाओ.- vijaylaxmi 

वो परी उतरे कहीं और दरमियाँ कोई न हों

मायने खो गए शब्दों के शब्दों में ढलकर 
रूह के रास्ते रूह की तरफ और गर्दिशी जमाने भर की ,
ताआर्रुफ़ वक्त के कनारे पर चिपका अहसास जलता हुआ सा 
शब्दकोषों के खुले मुहँ व्यर्थ जब लगने लगे ...
आत्मा का फिर कोई भेद बाकी न रहे ,न रहे बोझिल हुआ सा वक्त फिर 
न धुआँ न कोलाहल न और कोई भरम रहे ,
बस वही एक रास्ता जिस डगर कर्म चले ..
न झंझा न झंझट न झुन्झलाहट के कारवां ..
एक मंदिर गुंजायमान होती घंटियों के संगीत सी ,
वो परी उतरे कहीं और दरमियाँ कोई न हों ...
न अहसास न अनुभूतियाँ बाकी कोई धारता है वो ..
वही है अनंत उपासना सा , बस और कुछ बाकी नहीं है.
- विजयलक्ष्मी

Wednesday 19 June 2013

जननी को त्रास प्रभु क्यूँ न हो नाराज


हालात अच्छे नहीं है ..बहुत बुरा है मंजर 
कुछ लोगो को कहते सुना है खुद के हाथ में खंजर 
सच है ठीक इसके विपरीत .. क्यूँ गाते हो झूठे गीत 
बहुत बदरंग किया है उसकी बनाई दुनिया को इंसान ने 
बेतरतीबी से नोचा है माँस..दिया है उसको त्रास 
फाड़ दिए हरित वसन ...उसपर उढ़ाया है हमने कफन
काट डाले अंग अंग ...लहू बहाया उसका देकर दरिया का रंग
उखाड़ डाले नन्हे शिशु धरा पर खेलते थे मौसम के संग
हरित वसना श्रृंगार छीन लिया ...कभी सोचा नहीं दर्द कितना दिया उसको
जननी को त्रास प्रभु क्यूँ न हो नाराज ..उन्हें तो करना है इन्साफ
रिश्तों की मर्यादा भी रखनी है .. धरती जितनी माँ हमारी है उसकी भी तो बेटी है ..
जिसने हमे जीवन दिया ..उसी को रौंदते चले ..भला फिर कटार क्यूँ न चले
क्यूँ न गरजे गुस्सा उसका ..क्यूँ फूटे आक्रोश ..
अरे ओ मानुष ...मान ले कहना ..समझ ले अभी भी वक्त है
गर तू अभी भी नहीं समझ पायेगा नहीं आत्मा को चेतायेगा
कर्म नहीं सुधारेगा ...माँ को नहीं सँवारेगा ..
सम्भल ...न मचल तेरा हश्र फिर क्या होगा
.- विजयलक्ष्मी

Sunday 16 June 2013

जब जख्मों को सी लेते है.


क्या नाम दूँ उन लम्हों को ,
जब हमतुम जी लेते है ..
कोई और तमन्ना क्यूँ मन में,
जब जीवन को पी लेते हैं ..
मिलने जख्म तभी दिल को थे 
जब जख्मों को सी लेते है..
वक्त शातिर, पहले मिला नहीं ,
अब जज्बों में जी लेते हैं ..
स्वछंदता मांगी किसने है बोलो ,
बंधन में स्वतंत्रता जी लेते हैं .
.विजयलक्ष्मी 

Thursday 13 June 2013

पार हमे उतरना ही क्यूँ ,डूब मरेंगे मझधारा.

नदी के दो पाट मिलते नहीं कभी ,
बहता है दरिया स्नेहसिक्त सा यूँही .

बहुत बरसी हूँ रिमझिम यहाँ सावन सी ,
स्वाति बूंद नहीं हूँ जो मोती बनती सीप की .

चलो गुलों से कहे मुस्कुराने को ,भ्रमर से कहो गुनगुनाने को ,
बादलों को रोककर रखना ...अभी बाढ़ का खतरा टल गया है .

वो बेटी कभी ख्याल से जिन्दा है कभी हर अहसास में मरती है ,
आजादी दिखे पूरी ,,, जमाने की पहरेदारी हर साँस पे चलती है.


मेरी सीरत के सांवले रंग को हरित करने की तमन्ना क्यूँ ,
अपनी राह चलता चल ....यहाँ सूरज दीखता है कभी कभी .

काफिला भी तुम्हारा ,पतवार भी तुम्हारा ,,,
पार हमे उतरना ही क्यूँ ,डूब मरेंगे मझधारा.
- विजयलक्ष्मी 


अख़बार में छनकर खबर आती है

सत्य लावारिस दिखता तो है..
पर सच कहना तन्हा होता कब है ..
वेदना और सम्वेदना जग रही है 
सोने दो जिन्हें सूरज चढ़े अँधेरे नजर आते है 
चमगादड़ के शहर में कुछ अनोखा सा हुआ होता तो कुछ बात थी 
शब्द यहाँ शातिर थोड़ी सी शातिरी कर गये सच है 
ऊँचे मकानों में अँधेरे ही रहते है ज्यादातर 
और व्ही गूंजती है चीखे राहों पर आवाज नहीं आती 
हमारा हर खत चौराहे पर टंगा है
अख़बार में छनकर खबर आती है 
कच्चे मॉल की जरूरत है ऊँची कुर्सी वालों को पंहुचा देना
हमे जिन्दगी की साँझ औ सहर से फुर्सत नहीं होती
चस्पा दिया है सफरनामा ...मिल गया दालान में
इक आशादीप रोशन रहेगा मकान में .
- विजयलक्ष्मी 



राख सिद्ध नयन गिद्ध प्रगट संत से बाहुबली

स्मित रेख उभर कपोल तक निकल चली ,
बरसात नयन संग ढुलकी मोती बन चली .
नक्शे में नक्स अक्षी में अक्ष प्रतिबिम्बित 
घुंघटपट डाल मस्तक नार अलबेली चली .
रुदन रुदाली मरुथल जीवन अविरल अगन
तपिश सूर्य सम प्रखर अंगार अकेली चली .
दुष्ट हन्ता जीवन कन्ता कटार संग थी खेली 
राख सिद्ध नयन गिद्ध प्रगट संत से बाहुबली
अरि मस्तक पर हो सवार निरत निरत बहु 
कौन रहे मौन शीतल चन्द्र अरु अली कली
.- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 12 June 2013

दर्द ए सुकूं है गर तुझे तो मातम सा क्यूँ है बता




















तेरी ख़ूबसूरती में रंग ए लहू कितना है बता ,
तू बना जिस वफा से वो रंग ए वफा तो दिखा 

मजलूमों की रंग ए बद्दुआ चढ़ा कितना है बता ,
क्यूँ तुझसे मुहब्बत भी रहती है खफा वो दिखा 

क्यूँ दर्द की चादर चढ़ी है जहां में तेरे नाम बता,
चैन औ खुलूस आया है कितना हिस्से वो दिखा

चीखों का हिसाब लिखा क्या तुमने वो नाम बता,
चेहरों को खिलाया हो हकीकत कोई शाम तो दिखा .

दर्द ए सुकूं है गर तुझे तो मातम सा क्यूँ है बता
रगों में जमा लहू आब किया जिसने, नाम तो दिखा
.- विजयलक्ष्मी 

Thursday 6 June 2013

नहीं जाता दिल से ख्वाहिश औ ख्याल उनका .

दामन ए हवा पर नाम लिखना उँगलियों से उनका ,
हमे सुनाता है क्यूँ तराना लेकर के ख्याल उनका .

बडी बेरहम औ बेसबब दुनिया है याद रखना ए दिल ,
सालता होगा यादों में बसना, सामने न आना उनका .

सुना जाती रुबाइयाँ... हवाएं रुखसार को छूकर हमे,
उनकी बात वो जाने हमे भाता है याद आना उनका .

हरसू ख्याल एक ही दर औ दीवार से टकराता क्यूँ है ,
क्यूँ नहीं जाता दिल से ख्वाहिश औ ख्याल उनका .

कितने बेगैरत से हों गए हैं हम ,वो पूछे न पूछे मगर ,
दिल चाहता ही नहीं भूलना और बनना सवाल उनका .
... विजयलक्ष्मी  

Tuesday 4 June 2013

और खिड़की बंद कर दी ...!

मैंने द्वार खटखटाया 
खिड़की से पूछता है कौन है ?
मैंने कहा 
तुम्हारी बन्दगी !
तुम्हारी जिन्दगी ! 
तुम्हारी रिदा !
तुम्हारी दुआ !
वो बोला 
अभी घायल हूँ बहुत 
जिन्दगी ने जख्म दिए है बहुत 
मरहम की जरूरत है अभी .....तुम्हारी नहीं !
और खिड़की बंद कर दी ...!
और मैं ..
आंख में आंसू लिए चल पड़ी अपरिचित राह पर
.- विजयलक्ष्मी

रिदा = ख़ुशी 

जिन्दगी बदल जाये भी तो क्या है .


सच की खातिर जरूरत पड़े गर सच मर जाये भी तो क्या है ,
तेरी खुशियाँ सलामत रहे जिन्दगी बदल जाये भी तो क्या है .
-विजयलक्ष्मी 


सिसकियों में भी तन्हा कोई नहीं रोता

हर कदम जिन्दगी का बढ़ता रहे यूँ ही ,
सफल हो जिन्दगी हर कदम पर यूँ ही .- विजयलक्ष्मी

सोचने का वक्त ही नहीं है जिन्दगी की शाम का अभी 
अक्सर बादलों की ओट से भी सूरज आता नहीं नजर .- विजयलक्ष्मी

तुम्हारे भेजे हर खत को वो पढ़ता है खोलकर ,
मेरे दर्द बताकर अपने बैठा लेता है तुम्हे रोककर .- विजयलक्ष्मी

कुछ कर्म लेख है कुछ हाथ की लकीरें ,
सिसकियों में भी तन्हा कोई नहीं रोता .- विजयलक्ष्मी

बेबसी भी होंगी मजबूरियां भी होगी कुछ ,
जिन्दगी की धारा किसी से मुह नहीं मोडती.- विजयलक्ष्मी


कुछ दीप जलाए थे उम्मीद के हमने भी देहलीज पर ,
रहती है नजर हमेशा उसी छोर जिन्दगी की दहलीज पर .- विजयलक्ष्मी
 
उस रात का असर जिन्दगी भर रहना था 
जरूरी भी था असर का रहना ..भूख की मार ऐसी ही होती है 
वक्त बदल जाता है किन्तु अतीत नहीं भूला जाता 
न बचपन के बीते दिन न वो इन्तजार करती वक्त की पहेली सी जलती बुझती सी इंतजार की घड़ियाँ
वक्त को कभी हम ठेलते है कभी वक्त हमे ठेलता है 
नम आँखों के साथ बीतते वक्त को गुजारा है इन आँखों ने 
और सहर का इन्तजार किया कई बार ...
सूरज भी कभी कभी बहुत इन्तजार कराता सा लगता है 
कभी सुर टूटकर बिखरते है कभी सरगम गूंज जाती है सन्नाटों में
और कविता ...लहरा उठती है अपने आप धुप से चटकते आंगन में ..
कभी बिच्छु से दौड़ पड़ते है और रेंगते है शरीर पर जैसे मौत घूम जाती है ..परचम लिए
उस चौराहे पर गये हो कभी जहां भूख कड़ी रहती है नंगे पाँव ..
प्यास बहती है नदी की तरह दूर तलक ..कविता वहां भी बहती है ठहरती नहीं मगर..
मुझे दिखती है कविता उन आँखों में लालसा है जिनमे सरहद पर गये बेटे के लौटने की सही सलामत
मुझे दिखती है कविता उन मासूम चेहरों में भूख से बिलबिलाते है जो सूखी छाती से चिपक कर
मुझे दिखती है कविता उन सहमी आँखों में ख्वाब ठहरे है जिनमे भविष्य के
मुझे दिखती है कविता उस स्त्री की मांग में सूनापन लिए अथक चलती है जिन्दगी की तलाश में
मुझे दिखती है कविता उस जहन में जो ख्वाब बेचते है सुनहरे से संसार के रंगीले
मुझे दिखती है कविता उस रिक्शे की चूँ चूँ में रोटी की कीमत में साँझ प्रहर की
मुझे दिखती है कविता उस बच्चे की लाचारी में जो जूते गांठता है सहर से साँझ तक
मुझे दिखती है कविता उस किसान के हल में जो भरी दोपहरी तपता है मिटटी के संग
मुझे दिखती है कविता उस मासूमियत में जो कूड़े के ढेर में जिन्दगी बीनते है हर वक्त
मुझे दिखती है कविता उस चेहरे में जो सहम जाता है किसी नजर को अपनी और उठता हुआ देखकर
मुझे दिखती है कविता उस चंदा में रोटी सी शक्ल लिए दीखता है ख्वाबा सा भूखा हो जैसे कोई
मुझे दिखती है कविता उस जंगल में दावानल से चीख रहे है पंछी और बसेरे जलते है है पशुओं के
मुझे दिखती है कविता उस चीख में जो सहमकर बैठी है आंगन के भीतर तन के पुजारियों से डर के
मुझे दिखती है कविता हर उस दर्द में जिससे घायल है इन्सान और मरता है सांसों सांसों में
हर कदम जब ठिकर से चीत्कार उठे सुर होता है कविता का
मेरे हृदय में द्रवित हुए सोतों में कविता बजती है प्रतिपल
जीवन की जलती सडक पर तपती देह चमककर दिखती है सोना तब उगती है कविता
चेहरे की झुर्रिया सुनती है कविता जीवन की चीख चीखकर हे कोने में मन के
राग बजता है स्नेह के धागों का जब ममता दुलराती है नन्हे छौने को
कोई मखमली ख्वाब कोई लाता है एक स्मित सूखे होठों पर कविता बन जाती है
सुख दुःख की नदिया के तीरे जब कोई गीत कर्म की रेख लिखी जीती है जीवन की धारा
बहती है असुवन में कविता सी छलक कर निर्मल धारा
और पवन की अठखेली अलबेली उस राह पर तोडती पत्थर कोई सहेली अलबेली
खेत खलिहान में कुदाल की धार और राहत की आवाजें गति है कविता ही
रक्तरंजित कदम जब उठकर चलते है दुल्हन से महावर लगाये गूंजती है कविता सी हुक कही कोने में
जीवन का हर लम्हा कविता कह जाता है सुनकर देखो
प्रेमप्रीत की जीत तभी दुःख में सम्बल और मधुर मुस्कान खिले
वक्त की बहती धारा में कश्ती बन जब जीवन सा साथ चले
और रागिनी बजती है मद्दम सुर में रुबाइयों सी अलबेली ठहर ठहरकर मेरे भी भीतर
भावों के धागे जब बुनती है जीवन की रेल और धडकती है आँखों में तेरी अपनेपन की महक ..
और अंचल में छाँव धुप संग चलती है कदमों के संग ...कविता कह दूं या राग गीत
या एक बीतराग मेरे जीवन का ...बहता है झरना सा झर झर..जीवन का
.- विजयलक्ष्मी

समन्दर सी मैं ....चाहकर भी प्यासी हूँ खारे जल में

जब कलम चले तो नमी आँखों में आ जाये अपनी उस अहसासों से ,
चलता है कविता सा जीवन मद्दम से उठते गिरते अंतर्मन के प्रयासों से 
गीत बनते है दर्द के दर्दीले से उठकर सांसों से 
जब बरसता है सावन आँखों से रिमझिम 
और रागिनी गाती है मद्दम सा सुर झंकृत होकर मन वीणा पर 
जब बीतराग सा कदम चल पड़े आहत सा आहट पाकर 
चटक धुप जब सुखा देती है जीवन की छाया 
और बेलाग लिपटता है दुर्दिन सा साया 
बहते है सुर मन के भीतर ही रिसकर 
और सजीले गीत रूठकर होठों से बहते है हवाओं में सुर लहरी से
गाती है प्रीत कहीं अंतर्मन में तड़प रागिनी तेरे मन की
और सुनाई देती है जर्जर सी आवाज कही कुए से आती
और डूबकर सूरज फिर लड़ता है खुद से
ढूंढता है उस उजाले को अंतर्मन के आने वाली सहर पर लुटाना है जिसे
और समन्दर सी मैं ....चाहकर भी प्यासी हूँ खारे जल में
उठते गिरते भावों की लहरों पर सवार किश्ती में बैठे तुम ..
और एकाकी सी एकाकी पल में संग तुम्हारे जीती हूँ प्रतिपल
ओ जिन्दगी !क्या तुम ही हो संग मेरे ?
पहचान हो गयी हो तो बता देना.....!
इस छोर पर हाँ ...मैं ही हूँ
.- विजयलक्ष्मी