Saturday 31 August 2013

बहुत बेरहम ये दुनिया है

बहुत बेरहम ये दुनिया है गम देके दामन में ,हंसती है,
कहूँ किसको गर नाखुदा ही मेरे जख्मों से रश्क कर बैठे . - विजयलक्ष्मी

कल का भरोसा खत्म, आ जरा मौत से भी गले मिल लें अभी ,
कही ऐसा न हों जिंदगी दगा दे जाये ,और मौत मिलने से मना करदे . - विजयलक्ष्मी


वक्त ए तासीर बदलने का अब इन्तजार क्यूँ ,
बता दे अभी रजा क्या है बाकी ए जिंदगी ,मुझसे चाहती क्या है ?. - विजयलक्ष्मी

दिल भी खाली ही रहा लुड़कते प्यालों की तरह ,


दिल भी खाली ही रहा लुड़कते प्यालों की तरह ,

जरूरत ही खत्म हों चली कदमों से फासलों की तरह .

किनारे बैठें है यूँ  समन्दर के हम भी प्यासे ही ,

मिलकर भी तो जलना ही था शमा पतंगों की तरह.
- विजयलक्ष्मी


काश ! कह सकते किसी दिन..

काश ! कह सकते किसी दिन कि चले आओ तुम ,
संग बैठकर मेरे पल भर ही सही मुस्कुराओ तुम .- विजयलक्ष्मी

रिएक्टर स्केल जब हिलता है ,


रिएक्टर स्केल जब हिलता है ,,

सिस्मोग्रफ हिलता नहीं हिला जाता है 
असर देखा कभी उसका 
दिन में रात और पूनम भी अमावस हो जाती है 
संग्रह और विग्रह ..व्युत्क्रमानुपाती दीखते जरूर है ...होते नहीं 
कलम जब लिखती अहसास व्यथा कथा प्रथा नहीं सच लिखती है
चीख उठती है बवंडर लेकर
चीरकर गुजरती है जब खुद को
हस्ताक्षरित जिन्दगी नाम लिख दी अब
आचरण, व्याकरण और सभ्यता ..दोगली क्यूँ हो जाती है
लो ढक दिया आवरण सा एक
तुम नहीं आओगे यूँही छिप जाते हो अक्सर बादलों की ओट
देखते हो रिसते हुए ...महसूस करना चाहते हो सच को
उनवान बस उनवान है
यूँ भी अक्सर पंख विहीना मैं ....
उडती हूँ हौसलों की उड़ान ..देह पिंजर से निकल
खुले आसमान से ..अपने सूरज तक
और समा  जाती हूँ खारे  समन्दर की लहरों में
बिन पतवार की कश्ती लेकर
जिसे मनोरंजन लगता है लगता रहे ..
मेरे अंतर्मन में बसा है शिलालेख वही
तुम नदी से बहे और उतर गयी थी एक कश्ती उसमे
वही कश्ती लहरों पर अनवरत ढूंढ रही 

जीवन को थाम  उम्मीद की किरण
जिसके सूरज तुम हो ...हाँ तुम ही हो .- विजयलक्ष्मी  

Friday 30 August 2013

तुम्हारी बाते ..

ये सूरज ये हवाए करते तुम्हारी बाते !
ये बदलियाँ बरस करते तुम्हारी बाते !
नाजुक शबनमी बूंदों सी तुम्हारी बाते !
कांटे भी करने लगे अब तुम्हारी बाते !!

रात चांदनी से भी हुयी तुम्हारी बाते !
तन्हाई ,रुसवाई करते तुम्हारी बाते !
चंचल चपला चपल भी तुम्हारी बाते !
रुबाइयों को सुना करते तुम्हारी बाते !!

धरती गगन भी करते तुम्हारी बाते !
महक खनक,मेहँदी सी तुम्हारी बाते !
काजल रोली सिंदूरी सी तुम्हारी बाते!
अँधेरे,दीपक से करते तुम्हारी बाते !!

थिरकती तितलियों सी तुम्हारी बाते !
देह बर्तन रूह नर्तन सी तुम्हारी बाते !
सहरा में खिलते गुलाब तुम्हारी बाते !
मुझमे तुम,तुमसे करते तुम्हारी बाते !!- विजयलक्ष्मी 

उडी खुशबू महफिल में कुछ



आज ढूंढ ली राह हमने भी खुदके भटकने से पहले |

उडी खुशबू महफिल में कुछ उनके बहकने से पहले ||

हम देखा किये उन्हें उनकी नज़रें इनायत ही ना हुईं |
क्यूँ गिर रही है बिजलियाँ हमपर चमकने से पहले ||

निगाह भरकर देखा किये हम जाने किस सुरूर में |
नजरों में भर लिया था उन्हें पलक झपकने से पहले||

सिहरकर रह गये हम भी ख्याल औ ख्वाब में उनके |
सरगोशियाँ सी होने लगी थी उनसे लिपटने से पहले||

मासूम सी कली थी मैं भी फूल बन महकने से पहले |
चमकती थी चांदनी सी मैं सूरज संग दहकने से पहले||
...विजय &अंजना

कृष्ण का माखन ..

शब्दिका ,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,
हे कृष्णा 
आपका मक्खन 
गजब 
ढा रहा है.…
खाने के नहीं,
लगाने के
ज्यादा काम 
आ रहा है..
.---प्रकाश प्रलय 
...
...इसीलिए

तो 
हर नेता 
भी 
चिकना होता जा रहा है 
घोटालों से लिप्त
है 
मगर
फिर भी 
पकड़ा नहीं जा रहा हैं
.- विजयलक्ष्मी

दीवानगी क्या बताऊँ...



दीवानगी क्या बताऊँ मस्ताना बना फिरता हूँ 

न हो मुलाक़ात उनसे दीवाना बना फिरता हूँ ,

बेख्याली में अब बारिशों में भीगता फिरता हूँ 

बरसते है बादल जब मस्ताना बना फिरता हूँ 

ख़ामोशी सी छा गयी अनजाना बना फिरता हूँ 
लगाने लगा खुद से ही बेगाना बना फिरता हूँ 

लिखा न जा सके वो अफसाना बना फिरता हूँ
फितरत से आजकल शायराना बना फिरता हूँ .- विजयलक्ष्मी

जीवन स्कूल


Thursday 29 August 2013

अर्थशास्त्री के हाथ में अर्थशास्त्र कैसा ये औजार है

अर्थशास्त्री के हाथ में अर्थशास्त्र कैसा ये औजार है 
लेकिन मेरा प्यारा वतन किया अर्थशास्त्री ने बेकार है ||

भ्रष्टाचार घूसखारों संग घोटालो का वो खरीदार है 
विश्वपटल पर दिवालिया देश का चस्पा समाचार है ||

नीतियाँ रीत गयी औ चुप्पी से हुआ बहुत बेजार है 
आतंकवाद बढ़ रहा खजाना खाली से रंगा अखबार है|| 

सोना बैठा चढकर सिरपर अंधेरगर्दी का व्यापर है 
शेयर बाजार गिरा धडाम छाया कैसा ये अन्धकार है||

किससे करे उम्मीद देश का कैसे होना सुधार है
रुपया गिरा गर्त में डालर को कीमत का उपहार है ||- विजयलक्ष्मी

स्नेहसिक्त मेघों का बरसाना अक्सर हुआ करता है



स्नेहसिक्त मेघों का बरसाना अक्सर हुआ करता है 

बारिश में यूँ भीगना भीगाना अक्सर हुआ करता है ||

पलकों पर सजे है ख्वाब हमारी शिद्दत ए सुरूर के 
ख्वाबों में उनका आनाजाना अक्सर हुआ करता है ||


बिजलियाँ सी कौंध उठी पलकों पर हसी मुलाकात से 
बिजलियों का दिलसे टकराना अक्सर हुआ करता है||

जिन्दगी मिलने लगी उनके अहसास से गुजरे जब भी
अब उन से मिलना मिलाना अक्सर हुआ करता है ||

मुहब्बत है,क्या है ये ,अब तक न समझ न सके हम,
अब खुद समझना समझाना अक्सर हुआ करता है||.- विजयलक्ष्मी

Wednesday 28 August 2013

शहीदों की शाहदत से जनता के मन डोल रहे

शहीदों की शाहदत से जनता के मन डोल रहे ,
मार भगाओ दुश्मन को चीख चीखकर बोल रहे|| 

कायर है ये देश के शासक कब तक लहू बहायेंगे 
लहू उगलती छाती देख लहू माओ के खौल रहे ||

रुंद पड़ा धरा पर मुंड विहीन सिहरा भाई का सीना
क्यूँ नहीं उठाते बंदूक हाथ में भाई भी ये बोल रहे||

दिल्ली दिल भारत का है ये खेल का मैदान नहीं ,
कायर सीने पर वार करो राखी के बंधन बोल रहे ||

कब तक भारत माता ,इन कायरों को यूँ ढोएगी
बाहर निकालो इन्हें देश से कण कण भूमि के बोल रहे ||- विजयलक्ष्मी

भारत निर्माण किधर ,बैठा कौन से उच्च शिखर

भारत निर्माण किधर ,बैठा कौन से उच्च शिखर ,
रुपया नीचे गिरा गर्त में, स्वर्ण बैठा सर चढकर ||

ईमान का बाजार हिमवत से चला समन्दर पास ,
चील झपट्टा का खेल है भैंस उसी की जो बलधर ||

भ्रष्टाचार बनी पद का खेल इल्जाम लगाये घूसखोरी ,
जागरूकता बेहाल पड़ी, डंडे की मार टूटी फूटी डगर ||

बिकती नारी ,जनता से गद्दारी नेता संत व्यभिचारी ,
क्या है यही निर्माण देश का ,मुश्किल में पड़ा सफर ||

रोती जनता मरता किसान देश की लुटती अस्मत है ,
किस्मत कहूं इसे या नशा सत्ता का बोलता सर उपर || .- विजयलक्ष्मी

Thursday 22 August 2013

रहमत ए खुदा बरसे है अहसास ए दुआओं में ,

रहमत ए खुदा बरसे है अहसास ए दुआओं में ,
मुहब्बत ही मुहब्बत है बाकी अब तो हमारी वफाओ में 
बहता है समन्दर सा मुझमे लहर लहर लहराकर के 
कश्ती सी मैं लहर लहर लहराई सदा ही संग हवाओं में 
सूरज सा निकलकर चांदनी सा खिला जाते हो मुझे 
खुशबू बनके महक उठी हूँ महकते चमन की फिजाओं में 
रंग सिंदूरी सा ओढ़नी लिए सूरज आ पहुंचा मेरी गली 
जी करता है बिखर जाऊं मैं छूकर गुजरती इन हवाओं में.- विजयलक्ष्मी 

दर्द तो दर्द है ,हम साथ उसीके जी लेते हैं

दर्द तो दर्द है ,हम साथ उसीके जी लेते हैं 
टूट गया कहते हो दिल क्यूँ दुखता है मेरा .

पी लेते है आंसू गम के यादों में जीकर 
हर अहसास में चेहरा ,क्यूँ दिखता है तेरा.

जब सहर के सूरज सा नजरो में आते हो 
सूरज जैसा रंग सुनहरा क्यूँ दिखता है तेरा 
.
खिलते है गुल उपवन में रंग बिरंगे से 
मुस्कुराता सा हर लम्हा क्यूँ दीखता है मेरा

हार हार कर जीत रहे है मुझसे लम्हे सारे
हम हारे ,जीतता लम्हा क्यूँ दीखता है मेरा - विजयलक्ष्मी 

न फ़िक्र मौसम की ,न होश तन का यहाँ ,

न फ़िक्र मौसम की ,न होश तन का यहाँ ,
जिन्दा सी जिन्दगी सुना था नाम वतन का जहां 
सितमगर मौत कैसे है जरा ईमान से बोलो 
दिखता नहीं सूरज कहीं डूबा अँधेरे में आंगन यहाँ 
कोई दीप ऐसा जले चौक में जलता लहू से दीपक लगे 
तलवार खंजर बंदूक गोली होता वार पीठ पर है यहाँ
सूरज को कह दो जलता है सीना गलता नहीं मन
महकता है लकदक पुष्प ले खुशबू ए वतन अब
रोशन धरा है लिए अहसास खूबसूरत ..
वतनपरस्ती के सपने सजे पलकों पर हैं यहाँ .- विजयलक्ष्मी  

दर्द ए बयार न देख अब झोकें सा मिल ,

दर्द ए बयार न देख अब झोकें सा मिल ,
काँटें बहुत है चमन में तू गुलों सा खिल .

रंग ए झिलमिल सी ख़ूबसूरती नजर में ,
वो बुत संगमरमरी से, किरदारों से मिल. 

न आंसूं बहे ,न रुके ही पलक पर ढलके ,
डूबते उतरते नजर के सितारों से मिल .

इन्तजार ए वफा तो आज भी है मगर,
सूरज के बाद छिटके,न अंधेरों से मिल .

सितारा गगन का फलक पर बसा है अब ,
मिलना है तो सुन , जमीं पे उतर के मिल.....विजयलक्ष्मी 

दीवानगी सबकी अपनी अपनी है

दीवानगी सबकी अपनी अपनी है
किसी को धन से किसी मन से है 
किसी को प्रेम है देह का निखालिस 
किसी की कुर्बानी अपने वतन पे है 
कोई उपवन सजाता है इन्द्रधनुषी 
किसी को नफरत ही मेरे चमन से है 
दुआ भी बद्दुआ सी नजर आने लगी 
लेकर कभी बंदूक डराता बम से है 
सरहद पर मौत का खौफ क्यूँ अब 
कफन बांधकर चलते है मतवाले मैदान ए जंग में 
वो नहाते कब है होली के कच्चे रंग में
केसरिया बाना और तिरंगा जिन्हें भाता है
उनके सांसों को ख्याल भी वही महकाता है
मुहब्बत के रंग कितने है कही लैला से किस्से
कही लक्ष्मीबाई की रंगीन जिन्दगी
प्रताप की तलवार ,कही शिवाजी को सिखाई जीजाबाई ने ईमान की बन्दगी
कहीं रक्त से व्याकुल अशोक तलवार को फेंक देता है
कही राजपाठ को त्याग गौतम बुद्ध बन बैठा
कभी जन्म लेते है सुभाष से वीर धरती पर
कही सुखदेव भगत बटुकेश्वर झूलते है जीवन के झूले पर
दीवानगी ये भी है चुपचाप विष पीकर भी मीरा मरती नहीं है
राधा रंग में रंगकर भी मुलाकात श्याम से करती नहीं है
उलटे रंग भी बहुत भ्रष्टाचार से प्यार है जिन्हें कतार कम होती कब है
खाद्य सुरक्षा हो रही किसी और की जिससे मौत मुकर्रर हुयी किसान की
किस्सा ए दीवानगी बिखरे पड़े हैं
हर शब्द हर गली कूचे में निखरे पड़े हैं
सूरज की दीवानगी जलता है गगन में
और चन्द्रमा घटता बढ़ता है जाने कौन से विरह मिलन में .
- विजयलक्ष्मी

प्रेम करना और और कहना दो अलग से फलसफे हैं

चलो अब टूट जाते हैं नई कोपल उगेंगी ,
हम ठूंठ से खड़े छाया भी देते नहीं ,
फल कहाँ किसी ने पाए थे कब 
मार लो पत्थर लो और नीचे आ गये ..
लेकिन उड़ान मन की रोक लूं कैसे 
छोडकर मन्दिर चलो मस्जिद में दीपक जलाते हैं 
माना रौशनी की दरकार सबको है मगर क्या अंधरे भी अपने ही घर की खातिर भाते हैं 
जलाओ चराग उन मुंडेरों जरा ...जहां सूरज भी नहीं पहुंचा कभी 
दिखाओ रोशन किरण उन्हें जिन्हें रौशनी क्या है पता ही नहीं अभी
जहां दीप जलते है हजारों शाम से ...हासिल क्या करोगे तुम उस आराम से
बस तसल्लीबख्श कुछ मिलेंगे लम्हे चैन के ..बेखलल सी जिन्दगी ..
खुद को कह सकोगे हाँ ,जल चुका हूँ अपने हिस्से का ?
मगर झांको आत्मा में और झकझोर लो खुद को
सत्य का जीवन छोटा सही ,
मगर दिखावा तो नहीं
सत्य का परचम लहराएगा देर से मगर झूठा नहीं
प्रेम करना और और कहना दो अलग से फलसफे हैं
कितने है जो कहकर प्रेम की ड्योडी पर हकीकत में लुटे हैं .- विजयलक्ष्मी

Wednesday 21 August 2013

है आज भी उसी नदी के बीच



















नदी बहती रही तटों के बीच 

संग बिन पतवार नाव थी 
खाती थी हिचकौले 
मगर लहरों पर सवार थी
टूटे पत्थरों की चोट से घायल भी बहुत 
सुरत रुकने की मगर नागंवार थी 
है आज भी उसी नदी के बीच 
जिसमे बहती अहसास की जलधार थी
.- विजयलक्ष्मी

बशर्त किसी का घर न उजड़ा हो

तवायफ की मांग में सिंदूर भरने वाले को हाथोहाथ लो ,बशर्त किसी का घर न उजड़ा हो 
अंगूर की खेती पर पहरा ,
चोच कोयले के बदले हीरे से जड़ी थी 
नक्कालों की कौन कमीं संसार में 
सरकार के बारे में क्या बोले सरकार 
खुद के हाथ बंधे है वोट की चोट है साहिब ..
बदलने की हिम्मत हो तो बदल डालो
.- विजयलक्ष्मी

चलो मुस्कुराते है पाकीजगी से

चलो मुस्कुराते है पाकीजगी से ,
जो कम न हो किसी बन्दगी से
शायद खुशिया नसीब हो जाये 
जिनकी तमन्ना रही जिन्दगी से 
मोल में अनमोल किन्तु टका लगे न
औ उम्र उनकी लम्बी हो जिन्दगी से 
पैसे में बिकी जो पल का नहीं भरोसा 
खो रही ख़ुशी हैं खौफ ए दरिंदगी से 
संकरी सी शायद उम्मीद की गली हो 
मगर सहर के सूरज सा मिलना तुम जिन्दगी से
.- विजयलक्ष्मी

किताबी ज्ञान रह गया बाकी आजकल ,

किताबी ज्ञान रह गया बाकी आजकल ,
कितने बच्चों को पता हल-बैल की जोत आजकल 
कैसे जानेंगे पैदल चलना गाँव से गाँव तक आजकल 
ए सी कार और ट्रेन फर्स्ट क्लास का सफर आजकल 
कैसी खेती कैसी साँझ औ तैरना नहर का आजकल 
माटी के चूल्हे ही कितने बच्चों ने देखे आजकल 
लालटेन ,ढिबरी ..की चिमनी कब साफ़ होती आजकल 
हारे में पकते हांड़ी के दूध की कहाँ लज्जत आजकल 
बस पिज्जा पाव चोकलेट मैक डी का बचा है खाना आजकल .
क्या क्या लिखूं क्या छोडूं जिसे भूल चुकी दुनिया आजकल .
बागों में जाकर तोडकर फल खाना देखा कितनों ने आजकल
बिछे खडंजे भूल चुके होंगे ज्यादातर ..गलियाँ याद किसे आजकल
मेडा चले खेत में कहते देखे मिटटी कैसे पिसे आजकल
घर के कोने की चक्की रोती थी टूटे उसके पाट आजकल
सिलबट्टा बट्टे खाते में ..मिक्सी सुंदर लगे आजकल .
- विजयलक्ष्मी

चले जाओ ...उस वतन ...जहाँ चैन की सांस आये त्तुम्हे

सत्य तो सत्य है बदलता कब है 
जिन्दगी जिन्दगी और मौत सिर्फ मौत ..
मध्यमार्ग चलो बताओ तुम कौन सा ..
सिर्फ एक मर मर के जीना ..
जिन्दा दिख हुए मरा होना 
कौन सा ठीक है ...
जितन असत्य है सूरज का निकलना उतना ही सत्य है अँधेरा ..
मतलब सीधा है अगर कोई बीच का मार्ग तुम्हे भाता है तो मत रुको ...तुम 
चलते चले जाओ ..हम ये बन्दरबांट हम नहीं कर सकते 
मुबारकबाद दो हमे ....
चलो ये भी करते हैं ..
और देखते है कितना नीचे जा सकता है हम क्या रसातल तक ..
जब तुम्हे अहसास हो जाये ..
या तुम देखकर भी अनदेखा करना चाहते हो ..जैसा चाहो
हम सत्य की अर्थी को अपने कंधे पर उठा लेते हैं और ...
मत आना तुम उस अर्थी के पीछे ..
एक दिन जला भी देंगे हम उसे अकेले ही
दिखता रहेगा तुम्हे खिलता हुआ आंगन तुम्हारा
मत देखना उन गुलों पर कितने लिहरे किये है काँटों ने चुपचाप
काश ....सत्य से मुलाकात न हुयी होती ..
हम भी जिन्दा रहते अलमस्त ..
जमाना मुखौटों का आ गया है
लगा लो तुम भी वही मुखौटा जो सबने लगाया है
तुम्हारे पास है ...जाओ पहनों ..और खुश रहो
हम डूब जाते हैं सच का पत्थर बांधकर..
पैकिंग का जमाना है ..
एक के साथ एक फ्री ..का वक्त सर चढकर बोल रहा है
आंसू ..लगता है तय है .
कभी चमन में कभी सरहद पर
कभी आर्थिक नीतियों में
कभी बिकते जमीर को देखकर
राजनीती में उठते खमीर को देखकर
रुपया लुढकता जा रहा है
देश के हाथ में लकीरे ही कुछ ऐसी खिंची है शायद
और हरे वृक्ष दबकर कोयला हुए फिर बहर निकले
दलाली में हाथ काले किये कितनों के सच है
आंख बंद कर लो अब ..कहीं बाढ़ न आ जाये और बह जाये
सबकुछ ...वही एक तन्हा सत्य ..|
चले जाओ ...उस वतन ...जहाँ चैन की सांस आये त्तुम्हे
|- विजयलक्ष्मी

Friday 16 August 2013

नजर से छिपकर इसतरह सताते क्यूँ हो ,


नजर से छिपकर इसतरह सताते क्यूँ हो ,
जब आना नही पलकों पर तो बुलाते क्यूँ हो .

वजह जानने की चाहत नहीं कोई हमे यूंतो ,
तारीकियों में दिल की तुम नजर आते क्यूँ हो 

रूह की आवाज पहुंचती है रूह तक बे सबब ,
बेख्याली में भी हमे तुम नजर आते क्यूँ हो 

हर राह मुड जाती है तुम्हारी जानिब हर बार ,
एक बात तो बताओ इस तरह पुकारते क्यूँ हो

लो फेक दिए हथियार हमने जमीं पर कसम से ,
रूठे कैसे अब तुमसे इतने प्यार से मनाते क्यूँ हो
.- विजयलक्ष्मी 

खिला सा आसमां है


खिला सा आसमां है चमकते राग धरती के 
गगन विस्तार ले बैठा सम्भाले रंग धरती के .
सूरज का आगमन जगाता है मनराग धरती के 
झकृत हो दहकता है खुद भी वो साथ धरती के .
- विजयलक्ष्मी  

देशभक्तों के घर तारीकियों के किस्से मशहूर हैं

ए दिल जरा सम्भल तू अभी मजिल दूर है ,
लम्बी बहुत डगर है ख्वाबों की दुनिया दूर है .

नूर ही नूर है नजर में एक अहसास जगा है
लडखडाये न कदम वक्त के हाथो मजबूर है .

चर्चा देश की और आजादी ए वतन के किस्से 
देशभक्तों के घर तारीकियों के किस्से मशहूर हैं .
- विजयलक्ष्मी 

वन्देमातरम ..!!



एक दीप जलाए देश में आशा औ विश्वाश का 
आइये सब मिलकर बोले वन्देमातरम !!
.
- विजयलक्ष्मी 


उठकर गिरती पलकों का अंदाज शायराना है

तेरे अहसास में जिए जाते हैं साँस दर साँस ,
पुकारती है तेरा नाम जैसे दिल ही निशाना है .

धडकनों का क्या कहूं दगा देने लगी मुझको,
बसती है मुझमे लहू में मगर तेरा ठिकाना है .

ये कदम चलते है तेरी जानिब हर लम्हा क्यूँ ,
भूले डगर घर की अपने जैसे देश बेगाना है .

वो कौन सहर मुकम्मल तुम बिन हुयी मेरी ,
चले आओ तुम दिल में बनाया आशियाना है.

खामोश रहे जुबाँ तो नजर बोलती है तुम्हारी
उठकर गिरती  पलकों का अंदाज शायराना है
.- विजयलक्ष्मी

Wednesday 14 August 2013

सत्य को साधन नहीं मुकम्मल राह की तलाश है ,

सत्य को साधन नहीं मुकम्मल राह की तलाश है ,
जिंदगी तूफ़ान सी ,मद्धम सी इक आस है ,
किसने आशा को खो दिया, किसने कहा निराश है ,
पंचांग में बस शब्द है बाकी तो कुछ भी नहीं ,
तलवार की धार को मगर अब लहू की प्यास है ,
जिंदगी अब तू जुआ सा हों गयी ,
ताश के पत्तों का घर कोई पत्थर बताकर चल दिया ,
मंजिल की फ़िक्र वो करे जिसे खुद पर नहीं विश्वास है ,
एक दिन की बात क्या दर्द अब तो अनवरत ही साथ है ,
कायरों की बात क्या मैदान ए जंग से भाग खड़े होते है जो ,
उसपे तुर्रा लड़ने की बताते नई ये रीत है ,
इंसानियत तो मर गयी अब जनाजा भी उठाओ ,,,
बेटी को कह दो ...अब जन्म न ले जमीं पर ,
सर उठाकर चलना दूभर हों गया है ,
ये देश अब निरंकुशों का घर हों गया है ,
रास्ते सीधे नहीं हैं ,सेंध लगती चोरी से ,
बस में कुछ नहीं होते जिनके वो अकड़ते सीना जोरी से ,
हमको मगर उस हाल में भी पीठ दिखाना भाता नहीं ,
मौत भी मंजूर है ,लहू के धरे बहे ,,,
झंझावात उठा दें एक ही हुंकार से ,
छोड़ दे दुश्मन मैदान एक ही ललकार से ,
खौफ नहीं अदब है बस ,काँटों से डरते नहीं ,
अपने घर में खुश बहुत है औरों पे कब्जा करते नहीं
..विजयलक्ष्मी

माँ ...तुम सूरज सा थी ताप लिए ...

" माँ ...तुम सूरज सा थी ताप लिए ...
.......रोशन करती मेरी दुनिया ...
माँ ...चाँद बनी धरती का तुम ही  
माँ ...मन शीतल कर जाती हों ..
माँ ..पहली सीख तुम्हारी मुझको 
माँ ...प्रेम का पाठ सिखाया है
माँ ...मैं नादाँ चलना भी सिखलाया है
माँ ..खुला समुन्द्र दुनिया सारी
......लहर लहर उठना सिखलाया 
माँ ....मैं और तू .....कैसे भला जुदा हैं ,"- विजयलक्ष्मी 

लौट आओ तुम

" एक ही गम है जो खाए जा रहा है दिल को 
इस गम से जरा सा ही सही उबर आओ तुम 

ये जानते है इस इश्क की मजिल नहीं है कोई 
कहता है दिल फिर भी मुझे डूब जाओ तुम ..

साये यादों के तुम्हारी बसे हैं जो दिल में अमीत 
कैसे कह दूँ उनको कि दिल से मिट जाओ तुम ..

आशियाँ प्यार का अपने खुद ही तो लुटाया मैंने
आज भी मगर रो के कहता है दिल 'लौट आओ तुम "
'.- विजयलक्ष्मी 

अब तो तन्हाई है मेरी सहेली

"अब तो तन्हाई है मेरी सहेली ..
सबसे जुदा और सबसे अलग है ..

मैं कैसे कहूँ ,लब चुप ही रहेंगे 
बीती जो बातें सबसे अलग हैं 

जख्मों की गिनती हों न सकेगी 
कौन सा है जो दूजे से अलग है ..

अहसास जुदा हैं दिल के मेरे
यादों की दुनिया उनसे अलग है

बिखरें है लम्हे सिमटते नहीं
हर लम्हे की अपनी दुनिया अलग है ..

कह न सकेंगे हम वक्त ए बेवफाई
 जी ,ये हुनर वक्त का भी अलग हैं."
- विजयलक्ष्मी 

स्वतंत्रता दिवस ...

जयहिंद ||


" आजकल सत्य की आड़ में झूठ की बाड़ है ,
भारत शांति का पुजारी,करता पड़ोसी राड़ है."---- विजयलक्ष्मी

" देश तिरंगे का है या तिरंगा देश का
तिरंगा फहरता है बखानता है आन को ,
तिरंगा फहरता है दर्शाता है शान को 
तिरंगा फहरता है दिखाता है मान को 
तिरंगा वतन की पहचान है ,,

तिरंगा कागज का हो या खादी का तिरंगा है
तिरंगा लालकिले पर फहरे या सरकारी दफ्तर में तिरंगा है 

तिरंगा मकान पर ठहरे या दूकान पर तिरंगा है
तिरंगा किसी एक धर्म का नहीं ..तिरंगा छूता किसके मर्म को नहीं
तिरंगे का धर्म राष्ट्रीयता है हमारी
तिरंगे का मर्म कर्मण्यता है हमारी
तिरंगे का कर्म स्वतंत्रता है हमारी तिरंगे की चाह गगन तक फहराना है हमारी 

तिरंगे की राह उत्थान की हमारी 
तिरंगे में मैं भी हूँ तुम भी हो ..
तिरंगा जन गण का मन है 
तिरंगा राष्ट्रीयता का जीवन है 
तिरंगा हमारा अंतर्मन है 
तिरंगा वेद है पुराण है तिरंगा ही क़ुरान है 
तिरंगा देश की वाणी है ..तिरंगा जन कल्याणी है 
तिरंगा कर्मयोग का मर्म है 
तिरंगा ही हमारा पहला और अंतिम धर्म है
"-------- विजयलक्ष्मी






स्वतंत्रता दिवस ...
संजीदा बहुत हों चुके ..किसने कहा ये 
जवान खो चुके हम सच हुआ अभी ये 
सपूत देश के कीमत जान से लुटा रहे है 
नेता देश के घोटालों का खा रहे हैं 
सत्य का ढिंढोरा सभी पीट रहे है ,अकेले अकेले ...
गिन रहे है बैठकर कमियां ही कमियां हम भी ..
कुछ देर मिलकर एक आवाज बना ली जाये ..
बहुत बोलते है आगे आगे बढकर संगी साथी ..
वन्देमातरम सी एक तान उठाली जाये ..
आओ हम भी गुनगुनाले अब गीत वतन का ..
मुस्कुरा उठे वो देशभक्त नाज से ,जिन्होंने जाँ लुटा दी ..
गाते रहे वो हरदम गीत वतन के निराले ..
सबने ही मिलकर चोले.... केसरिया रंग डाले ..


याद करके उनको ...हम भी महसूस करलें ..
मिट गए वतन पर जो बेटे हुए वतन के ..
कमियों को छोड़ थोडा उनको भी गुनगुना लें ...
नब्बे वर्ष लड़ कर आजादी हमने पाई ...
कीमत बहुत भारी हर घर ने है चुकाई ..
कुछ नाम याद में है ...उनको क्या कहोगे ...
बेनाम जिन्होंने शाहदत लिखाई .
.- विजयलक्ष्मी 

भारत की सिसकियाँ सुने कौन ,
कर्णधार देश के हुए मौन 
कुछ विदेशियों ने फांसी चढ़ा दिए ,,
कुछ इतिहास ने आतंकवादी दिखा दिए .
सत्ता के पुजारियों ने जनता के स्वर दबा दिए 
बचेगा क्या बाकि ...चंद रुपयों में वोट बिकवा दिए
रोटी को मोहताज आज रोता मिला देश ,,
नेता बोलता है ,,हमने घर लुटवा दिए
"--- विजयलक्ष्मी 
..

""ए मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी ..
जो शहीद हुए है उनकी तुम याद करो कुर्बानी ..
जय हिंद ...जय हिंद की सेना ...""