Friday 29 November 2013

अब बेगुनाही से न मिलेंगे.

सोचकर भी नहीं सोचते कुछ सवाल हम ,
मालूम है जवाब मिलकर भी न मिलेंगे .

जिस चमन की बात करना चाहते हम ,
उनको गुरेज होगा और ख्याल भी न मिलेंगे .

गैर आराम क्यूँकर ए दिल होता है बता ,
जिंदगी के बीतते पल फिर कभी न मिलेंगे .

बेसबब गुनाह हम कर चुके हैं शायद ,
सबब क्यूँकर हुए ,अब बेगुनाही से न मिलेंगे.

हद औ बंदिशें करती है तलब मुझे बार बार ,
बिन परों के पंछी हैं ,अब पर न मिलेंगे .... विजयलक्ष्मी 

जाने तू क्या क्या बूझ गया

मेरे किसी शब्द को सच समझा कब है, बता दो ,
जब जल रहे थे तुमने कहा था ये आग झूठी है ,
झुलस कर राख बन हम उन दालानों तक पहुंचे जहाँ निशां थे तेरे ,
तुमने उन्हें भी पोत डाला काले स्याह रंग में ,
और आंगन धो डाला तुमने ,
तुलसी के दीप की कालिख सा साफ कर पोंछ दिया ,
नदिया में तैरते रहे कश्ती से सवाल बन कर ....
बता किनारा मिला कब ,पतवार भी तोड़ दिया ...
हम डूब समन्दर की लहरों पर अहसासों से बिखरे थे ,
पलकों के घूँघटपट के पीछे कितने सावन बिखरे थे ,,,,,
हश्र वही हर हसरत का ...जीवन का लोलक डोल गया .....
समझ आज भी कुछ न आया ...राहों से क्यूँ डोल गया ...
हमने समझा हम साझी थे तू कैसे बेगाना बोल गया ..
बन गए इतिहास ....डूब गया सूरज भी ..
हमने जिस चादर को श्वेत रंगा था ....उस पर जाने क्या क्या फेर गया ..
हम खुद को पहेली लगने जाने तू क्या क्या बूझ गया ....विजयलक्ष्मी 

सूरज हंसा औ ..

जल रहा दीप सा मुझमे मुझे ही बाती बना ,
सूरज हंसा औ गगन के कंधे पर सर रख सो गया .- विजयलक्ष्मी 





साज, ईमान औ मुहब्बत तो लय तलाश लेती कर है ,
सहरा को बहारों के हर रंग से भीतर तलक भर देती है..विजयलक्ष्मी 

नाच उठा मन मयूर,

अब हवा बन उड़ गया गम ...नजरों से दीदार हुआ जब ,
तुमबिन दर्द भी बरसा बादलों सा तेरा इंतजार हुआ जब.

तुमको कितना अपना कह दूँ मुश्किल इजहार हुआ अब,
तुम बिन इन सांसों का आना, जीना ही बेकार हुआ अब .

मतलब क्या समझाऊँ तुमको ,पल पल बेकरार हुआ जब,
नयनों को दर्पण कर बैठे हम ,नजरों से इजहार हुआ जब .

जख्म करीने से बैठे थे मन के आँगन में सत्कार हुआ जब ,
झूल गया मन सागर बन, ख्वाब रुपैहला पतवार हुआ जब .

चटक चाँदनी बिखरी अंगना ,खुद अपना संसार हुआ जब,
नाच उठा मन मयूर, पतझड बिछड़ा जीवन बहार हुआ जब....विजयलक्ष्मी 

किसको पता ...

सफर चाँद का था या रात का , किसको पता...
सजायाफ्ता थी चाँदनी या सूर्य किरण ,किसको पता ..विजयलक्ष्मी 

जरूरी तो नहीं

जरूरी तो कुछ भी नहीं यूँ तो सांसो के सिवा ,
रूठने पर आकर रुके हर बात ,जरूरी तो नहीं 

किस्सा ए साफगोई मुहब्बत ए अदावत में 
मनाने पर हो कोई खुराफात ,जरूरी तो नहीं 

यूंतो बहुत अदब होता है तवायफ के कोठे पर 
घर उनके कभी न चढ़े बारात ,जरूरी तो नहीं 

अफसाना ए दीवानगी में गुल क्या कांटे क्या 
बिगड़े ही हो हर बार के हालत ,जरूरी तो नहीं

भूख और प्यास पूरी कर लेते है जमाने में सभी
इंसानी देह में इंसानियत की बात,जरूरी तो नहीं - विजयलक्ष्मी

बेच रहा है जो देश ,

बेच रहा है जो देश ,
उसको बेदखल करे

सत्य की राह चल ,
क्यूँ पैदा खलल करे

लो परीक्षा की घड़ी है ,
न हो ,कोई नकल करे

तोड़ दो ख़ामोशी चीख से ,
मुस्कुराहट न विकल करे

शब्द शब्द लिख ह्रदय से ,
अब कलम को सफल करे

तस्वीर अहसास से बना ,
जो रंग भरे सब असल भरे.- विजयलक्ष्मी

Tuesday 26 November 2013

उठती है आवाज किधर से

उठती है आवाज किधर से हाथ में शमशीर है ,
कौन बोलेगा भारत का हिस्सा नहीं कश्मीर है
ये इजाजत मिली किससे,हक किसी को ये नहीं 
विदेशी ताकते हमारी लिखती नहीं तकदीर है 
न खुदा है वो न इजाजत उन्हें , न हम लाचार है 
बाकी कुछ नहीं है उनसे, इक व्यापार की जंजीर है .- विजयलक्ष्मी






भारतीय घरो में शेर पालते है शेर संग बच्चे ,
बताना होगा हमे दुश्मन को हम सपूत सच्चे .- विजयलक्ष्मी

माली फूल फिर लगाता है क्यूँ..?

तमन्ना ओ कत्ल ए कातिल बता 
किश्तों में वार कर मुझे तडपाता है क्यूँ 

मारने की तमन्ना है गर कत्ल कर 
जिन्दगी औ मौत के बीच झुलाता है क्यूँ 

साँस पर पहरा नजर तुम पर ठहरी है 
राह ए जिन्दगी पर संगदिली जताता है क्यूँ 

गुमनाम जिन्दगी की राह मुश्किल भरी 
खूनपसीना दलालों की खातिर लुटाता है क्यूँ

खुद ही मसलना था बगिया के फूल को
बताओ , माली फूल फिर लगाता है क्यूँ - विजयलक्ष्मी

क्या वतन से मुहब्बत नहीं की

क्या वतन से मुहब्बत नहीं की ,
उल्फत की कभी सोहबत नहीं की .

जिन्दगी चलते रहे संग तुम्हारे 
तुमको भी कभी तोहमद नहीं दी 

निगेहबानी में जीते रहे खुदाई 
फकीरी भा गयी ,दौलत नहीं ली 

रोटी को मोहताज हुए वतनपरस्त 
गद्दारी की मगर सोहबत नहीं की

मौत की अदावत भी भायी बहुत
पलभर की मौत ने मोहलत नही दी .- विजयलक्ष्मी

Friday 22 November 2013

चरित्र कहाँ है न मालूम,,,

चरित्र कहाँ है न मालूम लगता हैं गिर गया है कहीं ,
सिलवटों को देखा तो मजबूरियां और तुम दोनों थे वही .- विजयलक्ष्मी




जिन्दगी रंग बदलती है कभी आजाद पंछी सी 
कभी तालों में बंद रहती कभी तडपाती बरछी सी .- विजयलक्ष्मी

Thursday 21 November 2013

रजाई फट गयी तो क्या

एक चिंगारी जो दबी पड़ी है आज भी राख में !
थोड़ी तो कर कोशिश बदल जाएगी आग में !!

रजाई फट गयी तो क्या ,घुटने पेट से लगा !
ये क्या कम है आज भी एक गुदड़ी है भाग में !!

हर चौराहे जले अलाव पर जमीर तो न जला ! 
फकीर ने कहा कब जल नफरत की आग में !!

रख तेल स्नेह का ले कर्म की बाती साथ में !
चल जलाते है अँधेरी राह पर चिराग साथ में !!

रौशनी ईमान की जले जमीर हो धुला धुला !
नफरत भूले रास्ता ,रहे मुहब्बत से साथ में !! - विजयलक्ष्मी

Wednesday 20 November 2013

तुम जाने अनजाने ही अब साथ हमारे होते हो ,


कैसे कहते आंसू अपने मन मे बर्फ हुए बैठे हम
तुम को दुःख में देख न पाते रहे मुस्काते बैठे हम 
तुम जाने अनजाने ही अब साथ हमारे होते हो ,

बंद रहे या खुली पलक नैनो में ही रहते हो 
दिल का वीराना चहक उठा जब तीर समन्दर बैठे हम 
तुम समझे सन्नाटा है संवर दर्द पीर में बैठे हम 
जो चुनर तुमने भेजी उसको मन पे लपेट लिया 
बिखरा बिखरा दिल का कोना खुद में हमने समेट लिया 
कितने तुफाँ कितनी आंधी खुद में समेटे बैठे हम 
झूठ कहो तो तुम जानो दर्द खुद ही समेटे बैठे हम
हाल हमारे इक जैसे है कितना छिपाओगे खुदको 
रो लेते हैं दोनों गले मिल कितना बहलाओगे खुदको.- विजयलक्ष्मी 

न शिकवा है न कोई शिकायत है ..

न शिकवा है न कोई शिकायत है .
सच है यारा मुहब्बत भी अदावत है 

राह ए वफा ए मुहब्बत जिन्दगी में ,
कैसे कहे तुमसे हमे कोई शिकायत है .

न गम कोई छूता है तन्हाई का यूंतो 
मगर तन्हा है हम ये कैसी अदावत है .

लम्हा लम्हा लिखा है नाम अब तेरे 
कैसे कहे जिन्दगी तुझसे बगावत है .

ये जो राह तुम तलक पहुंची है यार
लगता है खुद से खुद की बगावत है .- विजयल
क्ष्मी

Sunday 17 November 2013

कुछ सहमा सा है मेरे भीतर ये सच है शायद

कुछ सहमा सा है मेरे भीतर ये सच है शायद 
खोने का डर क्यूँ होने लगा भला ...विश्वास हुआ अपने से ज्यादा ,,फिर भी 
कम्पित हो उठता है मन भीतर से 
या मेरी बात कौन सुनेगा फिर ...इस भय से 
तुम उद्वेलित हो जाते हो कभी खिलते हो 
कभी मुरझाये से फूल लगते हो बातों को सुनकर 
कभी चीखते हो और कहते हो साथ दो मेरा ..तो ...लगता मैं जिन्दा हूँ मैं भी 
सूखे नयनो में नीर छलक उठता है जीवन के अहसास से 
तुम नाराज नहीं होते ...मेरे एक कदम आगे निकलने से घुमते हुए
झिडकते नहीं ... सम्बल बनते हो मेरे हलकान हुए क्षणों में
क्या हुआ कभी कभी दूरिया सालती है तो ...

तुम सूरज से चमक उठते हो अँधेरे कोने में जब रात गहरती है .
....तुम साथ हो हर पल मेरे कमजोर होते पलो में भी चट्टान से जब टूटकर बिखरती हूँ
तुम्हे भी भाता होगा कभी तो कभी बुरा भी लगता होगा ..
जीवन के कुछ पल बहुत दूर हैं अनजानी सी राहों पर ठहरे हैं कहीं
किसको इन्तजार कहूं ...उन पलो का ,,

तुम्हारा ,,या उन पलो में झांकोगे तुम जब
पलकों पर ठहरती हैं आकर इन्तजार की घड़ियाँ ,,यही सच है
पर तुम नहीं हो ..ये दुनिया जानती है 

..तुम यही हो ,,ये मैं जानती हूँ ..
...तुम भी जानते हो ..मानों या नहीं 
तुम जानो !! - विजयलक्ष्मी 

जीवन श्रृंगार तुम ही

जीवन श्रृंगार तुम ही 
मधुप मधु गंध बहार तुम ही 
चटक चांदनी बन कटार तुम ही 
रसरंग प्रेम बरसात तुम ही 

तृषित चातक करे पुकार 
स्वाति नक्षत्र बरसों जलधार 
जीवन मरण तुम ही सार 
न जलाओ नफरत के अंगार

आंधियां सी क्यूँ चल रही
जीवन बर्फ सी कुछ पिघल रही
सर्द हवा संग तपिश क्यूँ बही
भयभीत इबादत कलकल बही

छलना छलती तो छल जाने दो
लिखी तकदीर मचल जाने दो
द्वंद को भी वक्त से टकराने दो
तस्वीर नैनो से आईने में उतर जाने दो

बहुत खौफ है जीवन सफर का
अनजान मोड़ अपनी डगर का
न कोई खत न मालूम खबर का
न इम्तेहान लो,, अपने सबर का .- विजयलक्ष्मी 

मुस्काकर मिलती है जिन्दगी

ये महल दुमहले क्या जाने जीवन की रंगीनियाँ 
भूखे नंगे पलनों में मुस्काकर मिलती है जिन्दगी

धन के ढेर लगाने वालो धन की खातिर मर जाओगे 
हम चाक गिरेबाँनो से भी मुस्काकर मिलती है जिन्दगी 

भूख अजब ,तुम्हे भूख नहीं पर रोटी के अम्बार लगे 
भूखे पेट करे गुजर पर मुस्काकर मिलती है जिन्दगी 

नैनो पर अश्क लिए फिरते हंसता है दिल रो रो कर भी 
ऐशो-आराम मुबारक ,हमसे मुस्काकर मिलती है जिन्दगी

तुम्हे चैन नहीं हम फकीर भले काँटों संग रैन बसर अपनी
फूल मिले न पर काँटों संग भी मुस्काकर मिलती है जिन्दगी.- विजयलक्ष्मी 

Wednesday 6 November 2013

मनाना आता गर तो ..

मनाना आता गर तो मना लेते तुमको हम ,
जानते हैं यूँही रूठना तुम्हे भाता है बहुत .

सरहद पर अश्क ,अश्क में अक्स तुम्हारा ही 
झूठे बोला मुझसे,तैरना तुम्हे भाता है बहुत .

एक समन्दर है अन्दर तेरे मेरे अहसास का 
कश्ती सी यादें है , तुफाँ भी तो आता है बहुत .

डूबता उतरता है सूरज यादों के समन्दर में ही 
जाने सहर कब होगी, इन्तजार सताता है बहुत .

उलझने दुनियावी दिल समझना ही नहीं चाहता
पिया अहसास ए दरिया पर प्यास बताता है बहुत .- विजयलक्ष्मी

"पूरा हो गया "

जिन्दा भी अधूरा ही रहा हर शख्स उम्रभर ,
"पूरा हो गया " सांस निकली जिस घड़ी. 

न बसा सका खुद को रहा इक जगह उम्रभर 
मौत ने खटखटाया "चल बसा" जिस घड़ी 

यही सुन बड़ा हुआ तुम सुधरोगे नहीं उम्रभर 
"भला आदमी" बना चार काँधे सवार जिस घड़ी 

झूठ का पुलिंदा बंधा रहा जिसके साथ उम्रभर 
स्वर्ग का वाशिंदा हुआ ,पूरा हुआ जिस घड़ी

मनमानी करते रहे जो लिया न प्रभु नाम उम्रभर
"राम नाम सत्य है" कहे देह ठिकाने लगाई जिस घड़ी .- विजयलक्ष्मी

दर खटखटाया कई बार

दर खटखटाया कई बार बड़ी हसरतों के साथ ,
हाथ भी नहीं बढाता ,खड़ा इल्जामात के साथ 


जलाता है दीप सा मन बाती बन गया है अब 
मुर्दा सी जिन्दगी काँटों की हिमाकत के साथ 


लुत्फ़ उठाने लगे अब हम कब्र में भी लेटकर
महकते है जलकर खुद में अहसासात के बाद 


जिन्दगी क्या शिकवा करूं , लाचार हो शायद 
अगरबत्तियां जलाई दिल ने अहसासात के बाद .- विजयलक्ष्मी

Tuesday 5 November 2013

अब पत्थर को फ़िक्र हों गया ..

हों गए खुदारा अब तो बुत हम भी हर नज़र में 
पत्थर दिल तो थे ही अब पत्थर को फ़िक्र हों गया ..


कब्र पर मेरी गुलो की गुजारिश करूं भी किससे 
बोया ही काँटों को सदा कैसे गुलों का जिक्र हो गया .


ये खुशबू कहाँ से उड़ चली सहरा के वाशिंदे है 
इल्जाम ए बेरुखी मगर हर लम्हा जैसे इत्र हो गया .


चुभते रहे थे हम ताउम्र शूल बन हर बात पर
महक कर बिखरा वक्त अपना,उनका जिक्र हो गया.


मौन भी शोर करता है बहुत मरने के बाद मुझमे 
जिन्दा हूँ या मुर्दा ख़ाक हूँ जनाजे का फ़िक्र हो गया .


दरकार ए हमख्याल खुद दरकिनार कर बैठा मूझे
बेख्याली खुद की बेजाँ इल्जामात ए फ़िक्र हो गया . - विजयलक्ष्मी

जिन्दा रहूँगा इस जमी पर दरख्त हूँ

जिन्दा रहूँगा इस जमी पर दरख्त हूँ सूखा हुआ हूँ तो क्या ,
जिन्दगी का वाहक हूँ बीज रोप दिया है , मर रहा हूँ तो क्या .- विजयलक्ष्मी