Wednesday 29 January 2014

ए नर्म हवा तू उनको ख्वाब ए जुनूं से न जगा

ए नर्म हवा तू उनको ख्वाब ए जुनूं से न जगा ,

होश में आने की अब कहाँ कोई दुआ या दवा.



न गम कोई मिले कहीं जो जख्म ताजा हो रहे 


उडी उडी सी निकहत ए गुल खोई खोई सी हवा .



है वफा तरद्दुद में जिसके जी लिए इक जिन्दगी 


रहम ओ सितम या बकाया कोई गम ए दास्ताँ .



वक्त चलता तकसीम कर तस्कीन से बैठा हुआ 


दो कहाँ राह ए मुहब्बत रहबरी का मिला वास्ता .


वादा ए जुनूं खामोश हम तमाशा न बने हमनवा 

होश औ खरोश खुदारा जानिब ए मंजिल हो सदा .-- विजयलक्ष्मी

Tuesday 28 January 2014

"यू पी को गुजरात नहीं बनने देंगे ,"

यू पी को गुजरात नहीं बनने देंगे ,

हम कभी यू पी को नहीं उभरने देंगे 



उभरी गर सत्ता हाथ से चली जायेगी 


न जिन्दा रखेंगे यूपी को न मरने देंगे.


रोज दिखाना सब्ज बाग़ फितरत है 


तरक्की हम प्रदेश को नहीं करने देंगे .



तानाशाही चल रही और हुआ अलगाव 


इंसानियत को कभी नहीं उभरने देंगे 



जख्मी कर धर्म को नासूर बना देंगे 


उस नासूर को हम कभी नहीं भरने देंगे.-- विजयलक्ष्मी

"हिंदुस्तान की राजनीति तो अल्लाह सरकार है "

आब औ हवा देश की लगती बीमार है ,
आम मरता है या ख़ास ठण्ड की मार है 

कानून मंत्री कानून नहीं जनता सदाचार का 
अर्थशास्त्री हाथ औ दिमाग से तंग हाल है 

मतलब परस्ती किसी की मौका परस्ती बनी
नेता लूट रहे है देश को ,गरीब हुए बेजार है

आचरण का व्याकरण खुद भूल सबको समझाते हैं
भूलकर मर्यादा सारी चढ़ा चुनाव का बुखार है

मौसम करवट बदल भी ले तो गजब कैसा
हिंदुस्तान की राजनीति तो अल्लाह सरकार है .-- विजयलक्ष्मी

निस्तार की जरूरत निस्तारण के लिए

निस्तार की जरूरत निस्तारण के लिए 
है घोटालों की जरूरत भंडारण के लिए.

क्यूँ करना नेता को अपनी जेब से खर्चा 
है सरकारी माल उडाना आहरण के लिए .

तकसीम करे जो दिल को धर्म को बेचते 
जागो .. साजिशो के निराकरण के लिए.

गर जज्ब ए जज्बात जब्त न कर सके कोई 

आमद औ जहनियत हो वातावरण के लिए

तस्कीन से तहरीर तकसीम की लिखी थी
हुई निस्तार की जरूरत निस्तारण के लिए.-- विजयलक्ष्मी


निस्तार -- चाकू .(खंजर )

सूरज हूँ न चिंगारी हूँ फिर भी जलना सीख रही हूँ मैं .

होने दो भीड़ यहाँ जितनी तन्हा चलना सीख रही हूँ मैं ,
सूरज हूँ न चिंगारी हूँ फिर भी जलना सीख रही हूँ मैं .

जितने भी घट थे मौसम में रीते सब के सब मिले रीते,
प्यास बढ़ी बदरा को देखा जल भरना सीख रही हूँ मैं .

जीवन को कूप बनाने वाले बारिश का मुह तकते हैं,
सागर सा लहराकर खुद को भरना सीख रही हूँ मैं .

छाँव बिकी बाजारों में जलते हैं रेतीली जमी पे पाँव मेरे ,
रात अँधेरी बहुत घनेरी लेकिन चलना सीख रही हूँ मैं .

सच की आग नफरत की नदिया खूब मिली बहते बहते
फूल नहीं शूलों पर चल पर्वत पर चढना सीख रही हूँ मैं.- विजयलक्ष्मी

Thursday 23 January 2014

"अश्क है या मोती कैसे पहचाने हम,"



















अश्क है या मोती कैसे पहचाने हम,

देखते है इनमे जिन्दगी के पैमाने हम .



तन्हा होकर भी नहीं रहते ये सच है 


बेखुदी में चले खुद को आजमाने हम.



ये पैरहन से शब्द औ ओस की बुँदे 


लिखकर वही नाम चले मिटाने हम .



चिड़िया सा चहक उठता है मन यूँही 


बिखरी मायूसी को चले बुझाने हम.



राख में चिंगारी रखी हो शायद कोई 


आओ क्रांति की आग चले जलाने हम .- विजयलक्ष्मी

कोटिश:नमन !! तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हे आजादी दूंगा !- सुभाषचन्द्र बोस





कोटिश:नमन !!

"  तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हे आजादी दूंगा !"- सुभाषचन्द्र बोस

" मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज्य करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ।."-- सुभाषचंद्र बोस 

"नेता जी " कहते ही उभरता रहा एक नाम सुभाष का ...आज नेता कहो तो होती है ग्लानी चेहरे और करतूत देखकर ...छोडकर सबकुछ लुटा दिया देश की खातिर आज के नेता देश को लूटकर घर अपना घर भर रहे हैं !

" देशप्रेम का स्वरूप बदल गया हुआ जीवन त्रास का ,
गिरता स्तर लगातार दिख रहा असर राजनैतिक ह्रास का 
अराजकता से बुझा रहे है दीप ये नेता नहीं दीखता दीप आस का 
"नेता जी "कहते ही उभरता रहा एक नाम सुभाष का "-- विजयलक्ष्मी 

जन्मदिवस पर विशेष ....
देशप्रेमियों की और से "नेता जी सुभाषचन्द बोस को कोटिश:नमन ,......जय हिन्द !!

वन्देमातरम !!




वो तेरा चेहरा उसपर अंदाज सुनहरा

वो तेरा चेहरा उसपर अंदाज सुनहरा 
बाते खट्टी मीठी औ अहसास रुपहला 

हर लम्हा जो गुजरा संग संग हमारे 
खूबसूरत सी सांझ औ चटकता सवेरा 

वो दर्द के नगमे गुनगुनाये जो हमने 
जिन्दा सा दीखता अश्क में अक्स तेरा 

खुदारा बंजर न हो जाये दिल की जमी 
बसने दो पलको में कोई ख्वाब सुनहरा

घुलना लहू में थिरकना मुझमे तुम्हारा
तन्हा हूँ तन्हा भी नहीं यादों ने ऐसे घेरा .-- विजयलक्ष्मी

Tuesday 21 January 2014

जिन्दा रहने लगा वो मुझमे ख्याल बनकर

जिन्दा रहने लगा वो मुझमे ख्याल बनकर 
छोड़े निशाँ भी उसने मुझमे सवाल बनकर 

एक वक्त था वो जब हम खुद में भी नहीं थे 
जुदा आज भी , जिन्दा तुम ख्याल बनकर

पलको पे ठहरा अक्स झिलमिल सितारे सा 
बजती रागिनी सी दिल का ख्याल बनकर 

जल उठे थे जुगनू सा चमकने की फिराक में 
जल रहे है आज भी खुद में सवाल बनकर

आईना ए ख्वाहिश, आइना हुए भूलकर खुदी
बिखरी किरचे भी लहू में बही सवाल बनकर

अब ,मैं हूँ संग बहता हुआ एक अहसास है
ख्याल से तुम हो किश्ती की पतवार बनकर .- विजयलक्ष्मी 

Sunday 19 January 2014

क्रांति की तमन्ना लिए आज के किरदार ,

क्रांति की तमन्ना लिए आज के किरदार ,
देखते नहीं है क्यूँ खुद का व्यवहार ...

झूठ के कांधे पर सत्य का जनाजा धरा ,
मगर झूठ का ही चलता है व्यापार...

रोता रहा सच बीमार हुआ बुरी तरह से,
कहते सुना बस वक्ती हुआ है बुखार ...

ये ख्वाब सी ही है दुनिया सारी सुना मैंने ,
आँख खुलने का मुझे भी है इन्तजार ...

माना ,मौत जीवन सफर का अंतिम पडाव है ,
घोटाला परम्पराओ के वहां भी जुड़े है तार ...-- विजयलक्ष्मी

सुना है दर्द को दर्द की पहचान होती है ,

सुना है दर्द को दर्द की पहचान होती है ,
उसके बाद भी कोई न कोई लूट जाता है .

साथ चलने को ढूंढते रहते हैं काफिला 
फिर भी कोई न कोई तन्हा छूट जाता है .

कोशिशे सम्भलने की करती हैं नदी सारी 
उठती तूफ़ान सी लहरे तटबंध टूट जाता है

बहुत सम्भालना पड़ता है आईने सा चरित्र 
कभी छिटका हाथ से अक्सर टूट जाता है

गलत कोई नहीं होता बशर्त मन न मैला हो
जब गलतफहमी हुयी पैदा रिश्ता रूठ जाता है -- विजयलक्ष्मी

Friday 17 January 2014

दहक कर महकना सूरज की कला है ,

दहक कर महकना सूरज की कला है ,
इस कला ने मगर लाखों को छला है .

जो अग्रसरित हुआ है सूरज की डगर,
देख लो हुनर तुम भी , वो ही जला है.

ये अलग बात है देता है रौशनी मगर,
रौशनी की खातिर ही दीप भी जला है.

जलते है सभी शायद जो देते रोशनी ,
सितारा ख्वाहिशों का टूटा ही मिला है.

सितारों में भी चांदनी अकेली नहीं है
चाँद भी तो संग चांदनी के ही खिला है

मैं धरती ,वजूद तन्हा मिलता है कहां
सूरज से रौशनी, चाँद संग ही खिला है - विजयलक्ष्मी

"उठते अहसास "

"उठते अहसास 

सुनती हुयी आवाज 


और महकना आपका 


जैसे कोई पुष्प हो 


पहली बयार का 


और पहली बरसात गुनगुनाती हो जैसे 


दे जाता है सौंधापन मन को 


विकल धरा मन को गीलापन 


जैसे छलक उठे गगरी जल की

 
और ...


एक खुशबू 


ओस सा निर्मल निश्छल अंतर्मन 


खिल उठता है 


तुलसी के बिरवे में लगा पुष्प हो 


प्रथम बसंत का
".-- विजयलक्ष्मी

"आरजू ए तमन्ना में देखिये तलाश जारी है ,"

"आरजू ए तमन्ना में देखिये तलाश जारी है ,
इन्तजार और कितना ..कब हमारी बारी है.

चमक बिजली सी चमन की आरजू लेकर 
गुलों की आरजू सबको काँटों से हमारी यारी है 

रोटी-रोजी की खातिर सडक मापते रहे बरसों
मुश्किल चैन मिलना इतनी फैली बेकारी है

इक अदद सरकारी स्कूल भारी मगर भेज पाना
शिक्षा रोती मिली जनसंख्या गणना की तैयारी है

यहाँ पर्दे पर पर्दे लगे बात पारदर्शिता की करते
न्याय मरा न्यायालय में रिश्वत की मारामारी है
"-- विजयलक्ष्मी

यार, हम भूखे तो नहीं मगर भूखे होते चले गये

"मालूम है हमे भूख को गाया नहीं जाता, 

भूख की तड़प को कभी महसूस करके देखा 


जब बात भूख की हो कविता का जन्म होता ।


भूख अपने में कुछ भी नहीं है यूंतो ,


देह की आभामण्डल देख विकरालता का अन्दाज होता 


भूख को समझने की कोशिश में उलझते चले गये।


यार ,हम भूखे तो नहीं मगर भूखे होते चले गये ".
-- विजयलक्ष्मी

जुबानों को हम-जुबाँ बना ही लेंगे वतन वाले ,

जुबानों को हम-जुबाँ बना ही लेंगे वतन वाले ,
दर्द इतना है न झगड़ा हिन्दू मुसलमानों में रहे .

हम-वतन होकर बाते करते है क्यूँ वो गैरों जैसी 
न बिछड़े घर कोई न कोई दुसरे के मकानों में रहे

कत्ल ए आम क्यूँकर गरीबों का ही होता है सदा
उन्हें बोलता नहीं जो खंजर लिए निजामों में रहे 

मरता है गरीब इज्जत औ आबरू की खातिर सदा 
कदम जमी पर मगर मेरे हौसले आसमानों में रहे

शोले आग के लेकर डराया नहीं करते मजलूम को
खौफ ए दरिया बही और उनके मुखौटे घरानों में रहे --- विजयलक्ष्मी

Thursday 16 January 2014

तुम्हे मुबारक ख्वाब लिख दिए

तुम्हे मुबारक ख्वाब लिख दिए तुम्हारे ,
हमे तन्हाईयाँ भी रास आने लगी है 

नयन में नमी दिल में शोर बहुत हमारे,
यादें अहसास के घरौंदे सजाने लगी हैं 

मौसम का क्या है रुख बदलता रहता है 
हम बा-वफा नहीं परछाई बताने लगी है 

हमारे छान कच्चे कच्ची दीवारे घर की 
पनीले हुए अहसास बताने लगी है

रौनक ए महफिल हिस्से नहीं अपने
तन्हाई हमारी गुनगुनाने लगी है .-- विजयलक्ष्मी 

सम्पूर्ण कविता है

सम्पूर्ण कविता है ..
अहसास है ओज है 
गीत है सरगम है 
ख़ुशी भी है गहराया गम भी है 
जीवन की राह ठोकता खम भी है 
यादे है ,इरादे है ,जीवन के वादे है 
बहती नदी की धार ..चलती कटार 
झुझता सत्य धारदार 
झूठ से लड़ाई 
जीवन की सच्चाई 

माँ की ममता
इंसानी समता
हाथ की लकीरे
पैरों की जंजीरे
हमारी तुम्हारी तस्वारे
राग रंग..प्रेम का ढंग
देश का स्वाभिमान
खुद्दारी का अभिमान 

मानव कल्याण
प्रश्नों का समाधान
राष्ट्रीय आन्दोलन
क्रांति की पुकार ,होता व्यभिचार
सत्य का परचम .राजनैतिक पतन
उज्ज्वल भविष्य ,गुरु और शिष्य
ईश्वरीय तत्व
जीवन में प्रेम का महत्व
एक उत्तरदायित्व
समाजिक स्थायित्व
कला नर्तन ..
घर का हर एक बर्तन
उसी में नव जीवन दर्शन .
राग और रागिनी है
चाँद संग चांदनी है
और ..हर एक रिश्ता
सामाजिकता ..शिष्टता ,
रात के अँधेरे ..जगाते सवेरे
और ..और ....उगता हुआ सविता है ..
सम्पूर्ण कविता है .-- विजयलक्ष्मी

Tuesday 14 January 2014

तन्हाई हमारी गुनगुनाने लगी है

तुम्हे मुबारक ख्वाब लिख दिए तुम्हारे ,
हमे तन्हाईयाँ भी रास आने लगी है

नयन में नमी दिल में शोर बहुत हमारे,
यादें अहसास के घरौंदे सजाने लगी हैं

मौसम का क्या है रुख बदलता रहता है
हम बा-वफा नहीं है परछाई बताने लगी है

हमारे छान  कच्चे कच्ची दीवारे घर की
पनीले हुए अहसास बताने लगी है

रौनक ए महफिल हिस्से नहीं अपने
तन्हाई हमारी गुनगुनाने लगी है .-- विजयलक्ष्मी 

शुभकामना मिलना ढेर सी और खुद का ढेर हो जाना ,

कुछ खो गयी लिपियाँ उनके निशान बाकी हैं ,
कुछ भाषाए ऐसी भी जिन्हें सीखना बाक़ी है .-- विजयलक्ष्मी


आज की हकीकत ,या शब्दों का फेर है ,
समझे न समझे "आप " के आगे ढेर है .-- विजयलक्ष्मी



बदला मौसम मोहसीकी बदलने लगी आपकी ,
देखते रहिये सीरत बदलती है या सूरत "आप" की .-- विजयलक्ष्मी



शुभकामना मिलना ढेर सी और खुद का ढेर हो जाना ,
राजनीती के जलवे चीखे गलत समझ का फेर हो जाना .-- विजयलक्ष्मी



लिख गया दिल पर तो कभी मिट न पायेगा ,
जिन्दगी भर रहेगा साथ और साथ ही जाएगा .-- विजयलक्ष्मी



टूटकर बिखरे तो क्या खुशबू है वो महकेगी ,
बसन्ती बयार बहेगी जब कलिया चटकेगी .--विजयलक्ष्मी





रूह ए वतन उड़ती क्यूँ ख़ाक उड़ाते फिरते हो ,

रूह ए वतन उड़ती क्यूँ ख़ाक उड़ाते फिरते हो ,
रमता भी जमता भी नहीं जुगतजोगना भाती है जब

वो कौन चमन मलय पवन प्रिय न लगे जिसे
ओस भरी पूस की राते,बसंत बसंती बुलाती है जब 

मझधार खड़े पतवार नहीं लहरों में लहरे डूब रही 
नाव बनाये कौन खिवैया तटबंध तक ले जाती है अब 

आफताब जलता हैं क्यूँ धरती मुस्कुराती है जब ,
समन्दर में छिप जाता है रात अँधेरी आती है जब .

यूँही हर मोड़ पर मुड़ना मुनासिब नहीं सफर में 
रुकता भी वहीँ है मुसाफिर मंजिल नजर आती है जब 


बही एक लहर उठ तीरे तीरे फिर तिरे तुम ठहर ठहर
डूब मरे पलकों के भीतर लहर समन्दर बहाती है जब

तितली की बात करना मत भौरों का गुंजन खूब सुना
खिलती कलिया शाख-शाख काँटों संग मुस्काती है अब .- विजयलक्ष्मी

Saturday 11 January 2014

गम की धूप में साँझ सी संवरती ये गजल ,

गम की धूप में साँझ सी संवरती ये गजल ,
शब्द चलते है तरन्नुम में बिखरती ये गजल 

तन्हा होते है गुनगुनाती सी उतरती ये गजल 
हम मुकम्मल न हुए कैसे निखरती ये गजल

आवाज की खातिर खुद से गुजरती ये गजल
दिल के साज पर खुद से ही संवरती ये गजल 

रंज औ गम संग दुनिया में लहरती ये गजल 
बादल अहसास का बनकर गहरती ये गजल

नदी बन समन्दर की लहर पे लहरती ये गजल
कश्ती भी नहीं पतवार भी नहीं बनती ये गजल .-- विजयलक्ष्मी

Thursday 9 January 2014

क्या ईमान मर जायेगा सभी का यहाँ ,

क्या ईमान मर जायेगा सभी का यहाँ ,
सब देखेंगे तमाशा चंद तमाशाइयों का 
कोई बोलेगा भीं या ...बस यूँही ...घुट जाएगी आवाज हलक के भीतर 
दफन हो जायेंगे भेद सारे सर ए आम सबकी निगाहों के सामने रहकर भी 
मैं चीखूंगी ,,,मुर्दों की इस बस्ती में ..कलम तडप कर बोल उठी 
मेरी आवाज यूँही आती रहेगी ..फर्श से अर्श तक ..
तुम अपने कान बंद रखो ,आँख मूंद लो ..
हेमराज के कटे कबद्ध को गलियों में दौड़ते हुए फिर साल बीत गया 
्रद्धांजली कैसी किसी को याद भी नहीं रहा ..
है कोई माँ का लाल ...दुश्मन पुकारता है सीमा पर
सरकार नकारा ...रोती ही रहती है
नकारा ,पौरुषहीन ,डरपोक दब्बू ...निहायत गिरे हुए जमीर के लोग ...
बंटवारे की राह तलाशते ...बेगैरत ..
किसी की निजी सम्पत्ति नहीं है देश ..जिसे बंटवारे की दरकार है निकल जाये छोड़कर ,
कौन रोकता है ,,,बेगैरत लोगो को
खुद को मिटाकर मिट गये जो ..
देश की शान देश की आन है वो ..अमर रहेंगे .
कुछ है दीखते जिन्दा मगर मरे ही रहेंगे .
मेरा जमीर ..देश की सच्चाई पुकारती है ..
उठाओ एक साथ अपनी आवाज ..
बुलंद करो आसमान तक
खंगालो अपने जमीर को
क्या अपनी माँ की कीमत लगाओगे
जिसका खाते हो उसे ही रसातल में धसाओगे
खून है या पानी बन गया है शिराओं में
या मर चुके हो मौत से पहले .
आओ एक समवेत स्वर में गुंजायमान करदे आसमान
इन्कलाब की चिंगारी जलती रहे दिलों में ,
खौफ रहे देश के दुश्मनों में -- विजयलक्ष्मी

गुमराह घोटालो में जब जब हिन्दुस्तान होगा ,

गुमराह घोटालो में जब जब हिन्दुस्तान होगा ,
जनता की छाती में टीसता गरीबी मकाम होगा .

हर दिल में मुजफ्फरनगर का ही निशान होगा 
रोती मिलेगी सड़के औ हर शहर लहुलुहान होगा .

हर गली चौराहे पर मरता हुआ किसान होगा
न सुधरी नीतियाँ, बैसाखियों पर हिन्दुस्तान होगा

देश की गलियों में डोलता कबद्ध बेजुबान होगा
दुश्मन को न मिटाया तो देश फिर गुलाम होगा .

नफरत की आग से लपटो से घिरा आवाम होगा ,
शस्य स्यामल धरती पर हर तरफ कब्रिस्तान होगा -- विजयलक्ष्मी

Tuesday 7 January 2014

हाँ ,थोड़ी सी तो ...इंसानियत जरूरी है

मनको की माला पिरोई है हमने 
मेरे मनके और तुम्हारे मनके 
खुशियों को लिए है संग वो मनके
चलो ढूंढते है जो टूटकर बिखरे हैं कहीं 
वो मनके भी उठा लाते है यहीं 
फकीरी सिखा देते हैं उन्हें 
चल बहुत काम है धंधे पर जाना है 
बहुत हुआ सोच विचार ...
उस बीमार को दवा पिलाना है .
चले जाया करो घर उसके भी 
बहुत गमगीन उसका फसाना हैं
कल आई थी बताने मुझको
तुमसे मिलके ही सुकून को उसने पहचाना हैं
मेरे मनको को तुम तौलते बहुत हो
मनके मनके तो रुसवा नहीं तुमसे
तुम चोरी से क्यूँ चलो हम भी साथ चलते हैं
विरह की आग को दोनों मिलकर कुछ कम करते हैं
छिडकते है खुशबू ए इतर तुम्हारे नाम का ...
हम भी उसपर इतना करम रखते हैं
थोडा प्यार डाल दो झोली में उसकी भी बहुत तरसी है ...
थोड़ी सी बेहया तो है मगर दुःख में बदली सी बरसी हैं .
प्यासे को पिला दो जल कंठ सुख गया होगा
चिल्लाते चिल्लाते गया भी दुःख गया होगा ,
अब दया आती है हरकतों पर उसकी ...
मानसिक रोग हुआ है गलती भी नहीं उसकी .
दया का पात्र है तो दया जरूरी हैं ...
हाँ ,थोड़ी सी तो ...इंसानियत जरूरी है .- विजयलक्ष्मी 

भूख आढ़तिये के पास गिरवी रखदी

अब हर भरम से छूट रहे है धीरे धीरे ,
मिट रही हैं मेरे अपने हाथों की लकीरें .

तेरे हाथों में कुछ लिखा हो नहीं मालूम 
तस्वीर मेरी है लिखी है औरों की तकदीरे.

तकरीर हमे खुदाई की सुनाई जाती है 
सामने जलती है चूल्हे में सभी तहरीरे . 

भूख आढ़तिये के पास गिरवी रखदी 
पैरों में बाँधली अपने सिद्धांत की तदबीरे .

अदावत ये सुना कहते हम गुलाम नहीं ,
गुलामी के रंग की दिखाता है अब जंजीरें ...- विजयलक्ष्मी 

Monday 6 January 2014

क्या तुम इंतजार करना छोड़ चुके हो ?

कह तो दिया तुमने इन्तजार मत करना ,
क्या तुम इंतजार करना छोड़ चुके हो ?

चल दिए सफर पर जिन्दगी रूकती कब है 
क्या उन राहों को देखना मुडके छोड़ चुके हो ?

जो बहता रहा लहू में दस्तक सुनती रही जो 
क्या दस्तक की आवाज से मुख मोड़ चुके हो ?

देह से निकलकर गयी रूह पहचानना तुम्हारा 
क्या उस रूह के अहसास को तोड़ चुके हो ?

ईमान बन चुका जो रास्ता जिन्दगी का
क्या पूछ लूं एक बात ,तुम ईमान छोड़ चुके हो ?-- विजयलक्ष्मी

Sunday 5 January 2014

पेट की भूख विज्ञानं की अंगीठी पर पकाई होती ,

पेट की भूख विज्ञानं की अंगीठी पर पकाई होती ,
तो आज भी अपनी छत नहीं होती ,
भौतिकी के ज्ञान ने मन को पत्थर कर दिया ,
दहेज लेकर ऐश उड़ाने की सोचने वाले ...
पुलिसिया हिरासत मिलेगी तो हिंदी की बिंदी की तरह दिखाई देगा ,
पेट का रसायन रोटी के उत्प्रेरक से शरीर को घसीटता है ,
जिंदगी समय के लोलक पर दोलन करती रहती है ,
जिन्दगी अर्ध विरामों के भीच खोई सी कहीं
इतिहास भूख का भूगोल के पन्नो में लापता
काव्य का लघु उद्योग ...दिमाग पर क्रांति लिखने लगा
प्रश्न वाचक बनी देश की नीतिया
छुट्टी चली हिन्द की रीतियाँ
अट्टाहस भ्रष्टाचार का देखिये
परखिये ,सोचिये ,तोलिये
तराजू हिय की कब विश्राम हो
याद रखना ...कलम का कलाम .. तुम,,ही पूर्ण विराम हों ,,-विजयलक्ष्मी

Saturday 4 January 2014

"मंगलमय हार्दिक शुभकामनाये.. तुम्हारे लिए ही भेज रही हूँ ."

समय की एक और छलांग ,
बढ़ता हुआ अनुभव 
गुजरता हुआ समय का परिसीमन 
और मैं ...झूठ ..बिलकुल झूठ 
बांध दिया समय को हमने ही गिनती में 
समय जब नहीं बंध पाया किसी से 
खुद को ,अपने साथियों को कुछ खुश करने के लिए
खुद को और आगे ले जाने के लिए
समय को बांध दिया हमने ..
हाँ बदल रहा है साल ..और बढ़ रहा है अपनापन
एक मुस्कुराहट आती है ..शुभकामनाये मिलती है जब
एक ख़ुशी होती है ..
दिल चहकना चाहता है चिड़िया सा
महकना चाहता है बगिया सा
बहना चाहता है दरिया सा ..
और तुम ..ठहरते ही नहीं
तुम्हे भी नया साल ..
नया समय मुबारक ..
समय की ये नदी यूँही बहती रहे अनवरत
बधाई और शुभकामनाओं का सिलसिला चलता रहे सतत
जीवनधार पर कश्ती बन लहर लहर लहरती रहे आकांक्षाये
"मंगलमय हार्दिक शुभकामनाये..
तुम्हारे लिए ही भेज रही हूँ ."-- विजयलक्ष्मी