Thursday 28 August 2014

" मन पंछी "




मन पंछी 

उड़ता  
नीलगगन 
छूने 
सूरज को 
झुलस झुलस भी रुकता कब 
गर जिन्दा है अहसास 
कभी 
बह उठता 
जलधार सा 
अनवरत 
प्यास लिए
सहरा में 
उफनती नहीं नदिया 
या ..
लीलती है 
जिंदगियां
कभी 
चाहत 
पागल पवन बन 
उडती फिरू 
उपवन उपवन 
महका दूं 
हर फूल 
उड़ा दू 
बादल ..
बरस जाये 
जीवन वर्षा 
न रहे प्यासा 
फिर कोई 
या 
धरती बन ठहरू 
सूरज के संग 
लिए 
हर रंग  
पागलपन 
सुख दुःख का बाना 
सुंदर रुपहला सा 
पलको पर 
सुनहरा सा 
एक ख्वाब ठहरा सा 
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 विजयलक्ष्मी 

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