Tuesday 2 September 2014

" हिचक कहू या हिचकी दोनों ही साथ थी "

अँधेरी राह पर दीप रखने की बात थी 
देखो जल रही हूँ मैं, बाकी है रात भी 

तहरीर ए ख्वाब संग सरहद पर बैठकर 
तकरीर शिलालेख पर नहीं है आज भी

जख्म न गिन मेरे ,तू वार करता चल 
उठा है दर्द भी संग रिसता अहसास भी

भूख जिदा कहूं या मुर्दा बैठकर मजार में 
मैं मुअत्तर, दर्द में तिरे जलते चराग भी

चांदनी बिखरी ,दीदार ए चाँद निगाह को
हिचक कहू या हिचकी दोनों ही साथ थी --- विजयलक्ष्मी 

No comments:

Post a Comment