Wednesday 15 October 2014

" फिरभी पहुंच अपनी दिल ए नादान पर है आजकल "

" मेरे पैर जमी पर ही रहे तो अच्छा है ,
ख्वाब ऊँची उडान पर है आजकल 
चूल्हे की आग बस्तियों में जा पंहुची 
सामाजिकता ढलान पर है आजकल 
आसमां से भी नजर मिला तो लूं मैं 
बजता राग आसमान पर है आजकल
इबारत की इमारत पर गुल टांकने हैं मुझे
महकती खुशबू मेहरबाँ उजड़े से मकान पर है आजकल
कुछ फूल उगाये थे माटी के गमले में हमने
जब से महके हैं वसंत के गुमान में हैं आजकल
यूंतो रिश्वतखोरी से सख्त नाराजगी है उन्हें
फिरभी पहुंच अपनी दिल ए नादान पर है आजकल
"----- विजयलक्ष्मी

2 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (17.10.2014) को "नारी-शक्ति" (चर्चा अंक-1769)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. बहुत सुन्दर लिखी है आपने ,बेहतरीन

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