Monday 20 April 2015

" निर्मल प्रेम की उन्मुक्त धारा...पंछियों के बीच "



निर्मल प्रेम की उन्मुक्त धारा
धरा पर
बहती है
उम्रभर
पंछियों के बीच ,,
मनुष्य तो नफरत जोड़ता है
ह्रदय में
और
समझौता प्यार में
टोकना मत
हम
मनुष्य वेशधारी तो हैं
उड़ते हैं उड़ान
कभी मर्यादित कभी उन्मुक्त
स्वार्थ के पाँखो पर सवार
किन्तु
पंछी नहीं है हम
बरसते हैं
अपने ही सहरा पर
सरसब्ज होने को
रखकर स्वार्थ का बीज किसी कोने
रोकना मत
कहने देना
फरेब इंसानी फितरत का
क्यूंकि
बादल नहीं हैं हम ---- विजयलक्ष्मी 

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