Saturday 11 July 2015

" रूह परखे रहमत को क्या देखे बयानों को "

"यूँ नजरों में बसा बैठे पंछी की उड़ानों को |
मेरे मन को छूना है सूरज के ठिकानों को ||

वो भी पत्थर लिए बैठे हैं बाँध के हाथो को |
आँख टूटता देखे कैसे शीशे के मकानों को ||

तुम बदरा संग खूब उड़े भीगी बरसातों में |
मन-डोर बंधी अपनी तारों की मचानो को ||

वो उडती पतंगों सा मन लहक लहक जाये |
अहसास की खुशबू में पर्दादारी जुबानों को ||

क्या परखें दुनिया को चुप रहना अच्छा है |
रूह परखे रहमत को क्या देखे बयानों को ||
" ----- विजयलक्ष्मी

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