Friday 14 August 2015

" नहीं ये देश नहीं ..असली देश तो ....."





















" देश एसा देश वैसा ...बहुत सुना मैंने ,देश कैसा 
वो चीखते नेता जन्तर मन्तर पर बैठे धरने पर ,
माइक पर लगाते गुहार ,, करते दोषारोपण ,,,
लम्बी सी कतार छुटभैये चापलूसों की देते भाषण 
क्या यही है देश ...?
नहीं ये देश नहीं ..असली देश तो
जलती धूप में खेत में तपता है ..
बोता है बीज सींचता है खेत ..
जोहता है बाट बादलों की ..नजर टिकाये ..
ढूंढता है वो दिशा.. जिधर से कौन्धेगी बिजली
पड़ेगी फुहार और हरियायेंगे खेत ..अन्यथा
देश कभी सूखे कभी बाढ़ को झेलता है
कर्ज और निराशा में डूबा लाचार किसान की आत्महत्या की आखिरी हिचकी लेता है
उसके पीछे जब मासूम आँखों में जो रोता है ..
वही है देश ..
ऊँचे बंगलों में बड़ी लम्बी गाड़ियों में नहीं है ..
गरीबी की झुग्गी में दो निवालों को जो तरसता है ,,
पैरों में पड़ी टूटी चप्पल को कपड़े से गांठ बांधकर कर चिहुकता सा
जो चलता है वही है देश ,
लाल बत्ती संग हूटर लगाकर विदेशी ब्रांड पहने काले चश्मे में जो घूमते है वो नहीं
देश... ऊँची दुकान पर जाने हिम्मत भी नहीं करता ..
उसके लिए चकाचौंध करती सडक पर जीविका को खड़ी होती है रिक्शा
वो कभी रिटायर ही नहीं होता.. लड़ता है अंतिम साँस तक रोटी की लड़ाई .
अंग्रेजी में गिटपिट बोलता है जो वो मेरा देश कहाँ ?
वो आंगन बाड़ी में बड़ा होना सीखता है ,,
नहीं मिलते क्रेच या प्ले स्कूल
किताबो की कमी को को ही नहीं रोता है पढाने वालों के ज्ञान और गिनती को भी रोता है देश
स्कूल के सीलन भरे जर्जर कमरों में बैठता है जिनका न टिकने का भरोसा न गिरने का ..
देश सिसकता है बलात्कार की भुक्तभोगी हर इक निर्भया की कांपती आत्मा में ..
मोमबत्ती मार्च नहीं निकलता देश निरीह सा ठगा सा दीखता है देश
देश तो ठेलों पर निहारता है भूखी आँखों से
बीनता है सामान कूड़े के ढेर से
पिटता है भूख में लगे चोरी के इल्जाम पर
तुम क्या जानते हो देश के विषय में ..
जानते हो जहाँ शौच के लिए भी सूरज के धुंधला होने का इंतजार ठहरा है
जानते हो जहाँ जवान बेटे की किस्मत पर बेरोजगारी का पहरा है
कम्पनी में मालिक के ताला लगाने के बाद तीसरे दिन जब भीख के लिए उठते हैं हाथ ..
बोतलों होटलों एय्याशियों में नहीं रहता देश ..
दो जून की रोटी के दुधमुहे बच्चे को छोड़ चकमक कपड़ो में गहरी लिपस्टिक में भीतर से मुरझाई बाहर से महकती हुई
इंतजार ..जो सामान नहीं खुद की देह का करती है सौदा ..
" चल ...बैठ ..आजा गाडी में "सुनकर चल देती है अनजान के साथ और रेगने देती है कीड़े को देह पर चंद रुपयों के बदले
तब सर धुनता है जो ,,वही है देश ,,
पिज्जा बर्गर नहीं भूख से उठते दर्द में रहता है देश
जिसके लिए कानून है पुलिस है न्यायालय है द्रोणाचार्य है सत्ता है भाषण है ..
लेकिन यदि नहीं है तो ...
चैन ..शांति .. शिक्षा ..रोजगार ..रोटी ..सुरक्षा और न्याय
" --- विजयलक्ष्मी

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