Wednesday 30 September 2015

" शब्दों से कबीर लगता मन का पारस कहूँ "

" उसके लबों पर था जब मेरे ख्याल का जिक्र |
उन आँखों में दिखा खुद के ख्याल का फ़िक्र ||

परेशानी दिखी पशेमानी के साथ चलती हुई |
तन्हाइयों का आलम.. लिए यादों का हिज्र ||

लिए फकीराना तबियत , शहंशाही ठाठ में |
यूँ जिन्दा जमीर था, जिन्दा रहने का फ़िक्र ||

शब्दों से कबीर लगता मन का पारस कहूँ |
तपिश सूरज की , जलती चांदनी का जिक्र ||

हौंसले के पंख लगा उड़ान मन में पतंग सी |
बींधते गुलों के साथ भी जरूरी शूलो सा मित्र ||" ---- विजयलक्ष्मी

Thursday 17 September 2015

" सिखाओ सबक, चुनाव की पाठशाला में "


" ऊदल ने आल्हा लिख डाली या चरण पखारे राजा के,
रीत कलम की चल निकली अब नेता जी के चरणों से
कैसे उद्धार करेंगे सच का चमचों की रेखा लम्बी है
कलम बिकेगी खूब यहाँ पारितोषिक नेता जी के चरणों से
जिनको क ख का ज्ञान नहीं स्वर जिनके सात हुए हैं सदा

अब ह्रस्व दीर्घ स्वर भी निकलेंगे नेता जी के चरणों से
क्या करना लिखकर गुरबत का क्या रोटी खाके करेगा गरीब
चारण भाट हुए हैं लेखक, साहित्य नेता जी के चरणों में
अब खुद्दारी भटक मरेगी बस राज चलेगा चमचों का
बिकी कलम, कानून बिके सब, नेता जी के चरणों में
"|| --- विजयलक्ष्मी


" कुंद बुद्धि हो चुकी या अक्ल पर ताले पड़े हैं ,
इंसानी देह में ही इंसानियत के लाले पड़े है .
निकल आया साँझ का सूरज बादलों के पार
कलयुगी महाभारत है दुर्योधन से पाले पड़े हैं
रावणों की कोई कमी होगी भी कैसे तुम कहो
भाई है भाई का दुश्मन लक्ष्मण के लाले पड़े हैं
जयद्रथ को बेटे से ज्यादा लालसा अभिमान की
अभिमन्यु कैसे है जो दुश्मनी पेट से पाले पड़े है
"--- विजयलक्ष्मी


" हो रही है राजनीति लाशों के ढेर पर ,
खा रहा है इन्सां इंसानियत बेचकर ||

पढ़ेलिखे है गर जाहिलो सा हाल क्यूँ
हैवानियत देखो हंस रहे गला रेतकर||

गद्दी की खातिर अपनी टोपी बेच दी
गद्दार वो भी वोट दी सामान देखकर ||

सस्ता अनाज, मोबाइल और लैपटॉप
खूनपसीने की कमाई से टैक्स पेलकर ||

पूछो सरकारी विद्यालय से परहेज क्यूँ
क्यूँ किया अपोइन्टमेंट जाति देखकर ||

वक्ती सुविधा नहीं अब न सूट न पैसा
अब चुनेंगे नेता भी कामकाज देखकर ||

सिखाओ सबक चुनाव की पाठशाला में 
कैसी सरकार, मिले स्वाभिमान बेचकर
"|! ----- विजयलक्ष्मी

Monday 14 September 2015

" मुझे गर्व है खुद के हिंदी भाषी होने पर .."



" जनसाधारण में हिंदी का महत्त्व बढ़ा है या ये फेसबुक की जरूरत...खैर जो भी हो सामाजिक साईट पर हिंदी उन्नत्ति के सोपान लगातार चढ़ रही है...... बहुत से रोमन वाले हिंदी में आगये...... इसके लिए गूगल हिंदी का विशेष योगदान है...उसका भी शुक्रिया... दुःख देता है अपने ही घर में गैरों सा व्यवहार वो दिन सबसे सुनहरा होगा जिस दिन हिंदी बोलने में शर्म नहीं गर्व महसूस होगा जनसाधारण को ...जय हिंदी .... जय हिन्दुस्तान |
हिंदी जिन्दा हो सिर्फ एक दिन के लिए ...क्यूँ
याद करें मातृभाषा को सिर
्फ एक दिन के लिए... क्यूँ
तिलांजली देदो इसे जीवन की अधिकारिणी ...क्यूँ
मोहताज दूसरो की जो उसे जिन्दगी ....क्यूँ
आप यही करते है रहते हिन्दुस्तान में है ,
खाते हिन्दुस्तान का है गाते अंग्रेजी है ....
ये किसने कहा अंग्रेजी मत पढो या न पढाओ ..
भाषा ज्ञान जितना हो उतना कम ..
किन्तु तज देते हो हिंदी को पूरा बस इतना ही है गम ..
जीवन दो पूर्ण जीवन दो ..
निज भाषा की उन्नति के तो स्वयम की उन्नति भी सम्भव नहीं है ..
जिस भाषा में दिमाग में सोचते हो उसे जिन्दा रखो जबान पर भी ..
शर्म ओ हया के साथ नहीं ..पूर्ण स्वाभिमान से ..
हाँ ...हम हिंदी भाषी है ..हिंदी ही मेरी मातृभाषा है .
मुझे गर्व है खुद के हिंदी भाषी होने पर ..
हिंदी बोलो.. हिंदी जियो ..हिंदी लिखो
."
---- विजयलक्ष्मी


" हिंदी को अपमानित कौन कर रहा है 
हिंदी का शोषण कर अपना पोषण कौन कर रहा है 
हिंदी को किसी की नौकरानी कौन बना रहा है 
हिंदी को नीचा कौन दिखा रहा हैं 
हिंदी के साथ रहने में कौन लज्जित महसूस कर रहा है 

हिन्दी की जिन्दगी को कम करके उसे एक दिन का मुहताज किसने किया
कौन है जो दे रहा है जहर हिंदी को नित्य प्रति
कौन है जो कर रहा है उसे बिन चिता में बैठाये सती
कौन है जिसने बंधक बना डाला उसे उसे उसके ही घर में
कौन है जो देखना तो चाहता है खूबसूरत मगर देता नहीं संवरने
कौन है इन सबका जिम्मेदार ...सजा उसे दीजिये ..
कौन है जिसे हिंदी के साथ पिछड़ने का डर है
कौन है जो बतायेगा कौन सा उसका असली घर है
मैंने सुना है हिंदी बरसों से चैन से सोई नहीं है
ध्यान दे ...क्या आप तो उनमे से कोई नहीं है ?
" .---- विजयलक्ष्मी




Friday 11 September 2015

" खिलखिलाते हैं वही महफिल में काँटों से बिंधे हैं जो "

" दिल की लगी से हम भी जरा दिल्लगी कर लेते हैं ,
गुनगुनाकर मुहब्बत जिन्दगी में रंग भर लेते हैं.
" ---- विजयलक्ष्मी





" हमने सुना,भीड़ में रहते हैं वही तन्हाई में रंगे हैं जो ,
खिलखिलाते हैं वही महफिल में काँटों से बिंधे हैं जो
" --- विजयलक्ष्मी





" ओ गमों की दुनिया के शहंशाह, जरा ठहर ,जमी की बात कर,
मुस्कुराकर निकलते है वही ...गमो की कमी नहीं जिनके घर
" .---- विजयलक्ष्मी




"पागल मैं अभी हूँ,,"



" "पागल मैं अभी हूँ,,"
सुना और आँखे मुस्कुरा दी
और दिल इतरा उठा 
जैसे प्रेम समन्दर डुबा ही देगा
कितने गोते लगा बैठा मन गंगासागर में 
शायद पूरे एक सौ आठ , 
यद्यपि गिन तो न सका मन ..
और दूसरे ही पल लगा जैसे तपती जलती आग निगल रही है
मेरे हक की सीमा कलमबंद हुई वसीयत में
लेकिन सुनो...मैंने एक पोटली बना ली हैं 
......ये उदासी मेरे साथ ही जाएगी 
" अनुबंधित हो चुकी है वो,"
यूँभी तुम्हे अच्छी नहीं लगती वो 
खुशियों के पलो का पूरा अशेष गोदाम यही रहेगा..
उदासी पर मालिकाना हक लिख चुके हो 
हमारे नाम
और 
मेरी वसीयत में बस मुस्कुराहट 
सुनहरी यादे...खिलखिलाती कलियाँ
नृत्य करती इतराती इठलाती तितली 
गुंजारित भ्रमर ...महका सा आंगन 
धुले-पुछे अहसास ,,
महकते ख्यालात 
खुबसुरत ख्वाब 
और ....
उनमे बसे ... हम 
संग रुपहले से अहसास
जैसे तुमने फिर कहा अभी 
"पागल मैं अभी हूँ,," "
----- विजयलक्ष्मी


Wednesday 9 September 2015

"....प्रेम तो आत्मा की तपस्या है और कुछ नहीं "

" प्रेम ...जो देह को छूकर गुजरे ..उसमे वासना शामिल होगी प्रतिशत चाहे कोई भी हो ...दैहिक आकर्षण प्रेम को सम्बल दे सकता है ...किन्तु आधार नहीं हो सकता ...प्रेम तो मन से शुरू मन पर आकर ही रुक जाता है ..मन या ह्रदय भावनाओं का घर .... जहाँ दरवाजे खिड़की इंट सीमेंट रेत सबकुछ भावनाओ से परिपूर्ण होता है... भावनाओ पर देह नृत्य करती है ..लेकिन अवलम्बित नहीं होती.. प्रेमदीप स्नेह तेल से जलता है .... खूबसूरती का सौदा यदि प्रेम है तो प्रेम है ही नहीं.... इसका तात्पर्य हुआ प्रेम को पढ़ा कदम उठाया तो..लेकिन कदम रख न सके प्रेम की धरा पर ...यदि देह की सीमा ही प्रेम है तो प्रेम कुंठित हो जाता है ...नहीं मालूम मीरा प्रेम परिपूर्ण थी या राधा.... कृष्ण कृपण थे उन दोनों के लिए ...यही सत्य है ... उनका प्रेम किसी भी स्वरूप में देह पर नहीं थमा ...प्रेम तो परलौकिक है... जहाँ दुनिया रिश्ते देह संसार सब तुच्छ है...भावना ही सर्वोपरी और सर्वोत्कृष्ट होती है.... दैहिक प्रेम यदि पूर्ण प्रेम होता तो बलात्कार जैसे शब्द बने ही नहीं होते ,,,देह तो क्षणिक उन्मादित लहरों को थामने का साधन मात्र है...जिसमे कुछ अंश अपनत्व समा जाता है....प्रेम तो आत्मा की तपस्या है और कुछ नहीं "---- विजयलक्ष्मी

Monday 7 September 2015

" सूर्य की प्रथम किरण सी उम्र "




" उम्र ,
कौन सी ..
तन्हा या साथ 
लिए बुढापा या बचपन की सौगात
या साल दर साल पीले पड़ते झड़ते पत्तो का साथ
सच कहना या फिर..दुनियावी नयनो देखी सुनी बात
इक उम्र
कितने बरस कितने महीने
गिनो तो मिनटों और पलो में
जन्म के छोर से चलकर..या उससे भी पहले
प्रथम अहसास के मीठे कोने से,
वृक्ष के पत्तों सी बीत रही ,,
पीले झड़ते वसंत को पार करती मुस्कुराई थी मुझपर
मेरी होकर भी मेरी नहीं थी ..
बंटी हुई सी..
यादों में ,, औ बातों में
दिन से गुजर अँधेरी रातों में
अहसासों में गिनोगे या सांसो में
बीतती बातों में या दिल पर होती आघातों में
या उन शब्दों के खामोश पड़े प्राचीरों से..
काँटों जैसी फूलों की टुकड़ी सोच यूँही मुस्काती है ,,
स्वर्ग नर्क सी यादो को उम्र में गिनवाती है
एक उम्र बर्फ में दबकर बीती ..एक योग तपस्या में दर बैठी
भावनाओ के भूगोल में नदी बहती थी,,
इतिहास मन के गलियारे में युद्धबंदी से सोच रहे ,,
उम्र अपनी लिखूं तो लिखूं कैसे
अपने लिए न ख्वाब बुने न उम्र बुनी
बस ख्यालों की ऊन से बुनती रहती है जिन्दगी खुद को
अंधेरो में रौशनी का इंतजार ..उम्र ही अँधेरे की
खिलती किरण मुस्काती किरण
जिन्दगी को उम्र दे जाती किरण
और एक उम्र मुस्कुरा उठी अंतर्मन की
सूर्य की प्रथम किरण सी उम्र
" ---- विजयलक्ष्मी

Friday 4 September 2015

" कृष्ण जन्माष्टमी मंगलमय हो "


" हे पार्थ उठो ,
बहुत सो चुके तुम ,
मैं कृष्ण ,बिराजता हूँ तुम्हारे भीतर ,
कर्तव्य की रणभेरी बजाओ .
शब्दों को गुजार करो ,
शंखनाद करो ,
आह्वान करो नित नये प्रकाश को
जागो ,,
भोर का सूरज बनो
प्रकाशित करो ..जन जन के मन को
तुम्हे अपने भीतर के भय को भगाना है
फैले अंधकार से लड़ना है
जीवन हवनकुंड बनाओ
कर्तव्य की आहुति
और स्नेह घृत के साथ
है पार्थ विराजता तुममे
खुद को बजाओ
आत्मा को जगाओ ..आर्तनाद नहीं शंखनाद करो
उठो ,
जीवन नैया का तुम्हे ही खिवैया बनना है तुम्हे ही पतवार ,
उठो इसबार ..
धारो अवतार ..हे भद्रे ..
मैं कर्तव्य प्रेम से जागृत होता हूँ
तुम्हारे भीतर निवास करता हूँ ,
तुम कृष्ण हो कृष्णमय हो जाओ
जागो ,भ्रमित मत हो
ज्न्माओ मुझे ..
मठ मन्दिरों में नहीं ..
अपने अंदर ,
अपनी आत्मा में
अपने अंतर्मन में
गुंजित करो मुझे
तभी मैं पूजित हो सकूंगा
मैं रथ सारथि हूँ
गांडीव तुम्हे उठाना होगा
" --- विजयलक्ष्मी 





कृष्ण जन्म ...मतलब भादो का महिना कृष्ण पक्ष अष्टमी...और सांवरे सलौने कान्हा जी का जन्म.. कृष्णजन्माष्टमी हिन्दू धर्म के सभी मतावलम्बी मनाते है...चाहे वो शैव हो या शाक्त ...वैष्णव को विशेषकर बहुत धूम मची रहती है आजकल मटकी का चलन बहुत बढ़ गया...कुछ लोग तो तो स्वयम को कृष्ण का अवतार ही नहीं साक्षात् स्वरूप मानते है....इसीलिए लडकी छेड़ना अपना नैसर्गिक अधिकार मानते हैं ...कलयुगी क्न्हैयाओ ...एक बात गौर से सुनो...कृष्ण बनने से पहले योग ,, ध्यान ,,माया के साथ आध्यात्म को अपनी अंतरात्मा में उतारो,,कृष्ण के समान स्नेहिल प्रेम धारा धरा पर लाओ ...उनकी तरह असुरों ( आज की आराजकता अनैतिकता ) के खिलाफ खड़े हो ... समाज को तोड़ने के लिए नहीं जोड़ने के लिए...... आप लोग कहते है ..और मानते भी है कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त थे...राम यद्यपि पुरुषोत्तम राम थे किन्तु सोलह कलाओं से युक्त नहीं थे...सोलह कलाओं का अर्थ " सर्वगुणसंपन्न होना "... अब डालिए खुद पर नजर मापिये खुद को ...फिर कृष्ण कन्हैया बनना ...यशोदा ही कोई नहीं बनना चाहता तो कृष्ण भला कैसे....इसलिए माधुर्यता के कृष्ण को चरित्र में उतारने से पहले सोलह कलाओं को भी देख लेना ..न हो सामने वाला विशेष पारंगत हो... और........" कृष्णजन्माष्टमी की बधाई आपको भी |" ---- विजयलक्ष्मी





"...कृष्ण सा जीवन कृष्ण सा ज्ञान कृष्ण सा युद्ध कृष्ण सी कलाएं कृष्ण सा प्रेम ....क्या सम्भव है धरती पर जहां प्रेम अपनी पराकाष्ठ को छुए तो किन्तु अपवित्र न हो ...पूर्ण पवित्र प्रेम ,देह से विलग ,जहां शरीर विदेह जंक की तरह अलग थलग हो और प्रेम रहे शाश्वत सत्य बनकर ,जपे प्रतिक्षण ,डूबे उस प्रेम में ,जैसे जल में रहके भी कोई गीला न हो 
आत्मा का शुद्ध सरल और शाश्वत रंग ...यदि हाँ ...तो समझो प्रेम पा लिया आपने ..और अगर मिलन की जरूरत है और प
ाने की लालसा बकाया है तो सब कुछ अधुरा ही है ...राधा सा प्रेम मीरा सा बावरापन सुर सी साधना तुलसी सी भक्ति ..सुदामा सी श्रद्धा बिखरा पड़ा है जैसे समेटने की देर है ... राधा सा शाश्वत अटल प्रेम ...राधा पूर्ण स्त्री ...जिसमे स्वयम में ही कृष्ण को समा लिया और उधौ के सम्मुख प्रगट कर प्रेम की पराकाष्ठा के दर्शन कराए ...प्रेम कृष्ण राधा सा ही शाश्वत और सत्य है बाकी वृथा ,देह के साथ शुरू और देह के साथ खत्म ..|देह के साथ रहकर आत्मा भी बीमार समझने लगती है खुद को ..देह रूठकर नेह से छूट जाती है और रह जाती है विलग आत्मा ..यही वो सत्य है जो जीवात्मा स्वरूप में प्रभु से मिलता है अत:प्रेम उज्ज्वल होना चाहिए ..जिसे आत्मा के साथ ले जाया जा सके ..
...सांसारिक मोह बंधन युक्त नहीं ..प्रेम उपासना है
" - विजयलक्ष्मी




" जय शिक्षक दिवस "

" शिक्षक दिवस ,या विडम्बना दिवस क्या नाम दूं इसदिन को...ये विडम्बना नहींतो और क्या है सरकारे अपनी अपनी हांकती रहती है..लेकिन नतो वर्तमान सुरक्षित हुआ और न भविष्य के अभी आसार है...आजादी से गये सालो तक मात्र दौलत बनाने में वक्त लगाया गया लेकिन राष्ट्र निर्माण में नहीं ...कितने घोटाले किये गये ..यदि किसी एक घोटाले की अपेक्षा कुछ समय शिक्षा अभियान में दिया जाता तो शायद......सम्भव था..किन्तु शिक्षा को तो भिक्षा में भी देने को तैयार नहीं है विद्यालय की और भी सुदर तस्वीर देखने को मिलती है जब सरकार द्वारा भर्ती किये गये रिश्वत के टट्टू को देश की राजधानी का नाम भी याद करना पड़ता है ...जिन्हें खुद को ठीक से पढना भी नहींआता वही बैठा दिए है पढाने के लिए...अँधा बांटे रेवड़ी अपने अपने को देय...... शिक्षक की स्थिति दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर है...उसके पास इतने काम है जिन्हें करते हुए जिन्दगी बीत जाती है शिक्षण जिस मुख्य कार्य के लिए नियुक्ति हुई बस वही लिस्ट में कभीशामिल नहीं होता...क्यूंकि सरकारी विद्यालय में अधिकारी नहीं नरेगा के मजदूर तैयार किये जाते रहे हैं बकाया कोई चिंता भीक्यूँ करें उनके बच्चे तो अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में पढ़ते है भई....जीवन प्रेरक न ज्ञान मिलताहै न आदतें शिक्षक दिवस की शत प्रतिशत बधाई आपको भी..
काँटों से होकर सही रास्ते तो निकाल ,
शिक्षाण संस्थान बने भिक्षण संस्थान.
न कायदा कोई न लगता फायदा कोई
कभी पशु गणना ,कभी मिड डे मील
रोटी बनाकर खिलानी..फिर सरकारी जमात जिमानी
अजी बस छोडिये टंटा ...पढाई को न इक घंटा
पढ़ाएंगे क्या ख़ाक,भविष्य नौनिहालों का कर रहे हैं राख
इसी राख को उठाओ ..
शिक्षा की भिक्षा नहीं तो उन्ही के मस्तक चढाओ
जय राज्य सरकारें,, जय शिक्षक दिवस ||
"--------- विजयलक्ष्मी

" जो पांव धरे वतन की धरती पर दुश्मन को छलनी करके रहते हैं "

न रंग मेहँदी का चढ़ा हथेली लाल क्यूँकर है ?
लिखी तहरीर शमशीरीं बनी जाल क्यूँकर है ?
बिकती नारियां देखी मानुष कंगाल क्यूँकर है ?
जले नदिया सा मन बरसे बरसात क्यूँकर है ?
सीता वनवास जाए, द्रोपदी बेहाल क्यूँकर है ?
जवाब उत्तरा मांगे किससे मरा सुहाग क्यूँकर है ?
समाज सभ्य होता गर..न जरूरत थी बताने की....
बेटा चाहिए सबको कन्या भ्रूणहत्या पाप क्यूँकर है ?
---- विजयलक्ष्मी


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" हम भारतीय अहिंसावादी हिंसा में यूंतो विश्वास नहीं करते हैं,
लेकिन मात्रभूमि हित धर्म पालते हाथ पर हाथ नहीं धरते हैं.
ये अलग सी बात है हम सभी शांतिप्रिय झगड़े से दूर रहते है 
उन्हें नहीं छोड़ते जा पहुंचे पाताल में भी, मद में चूर रहते हैं .
यूंतो हम प्रेम के गीत सलौने सुंदर हर पल गुनगुनाते रहते हैं

ठान ले गर नफरत फैलाने वाले को सबक सिखाकर रहते हैं .
खौफ तूफ़ा का नहीं जज्ब किये जज्बात चट्टान से ठहरे हैं .
इक रंग सुनहरा सा ओढ़े यादों का दीप बनकर जलते रहते हैं
उजड़ते बसते अहसासों की दुनिया दुल्हन सा सजते रहते हैं,
जो नजर करे टेड़ी दुश्मन की छाती पर शमशीर धरते हैं
जो पांव धरे वतन की धरती पर दुश्मन को छलनी करके रहते हैं
"---- विजयलक्ष्मी