Thursday 29 October 2015

" क्यूँ न अँधेरा पी जाऊं मैं "

" नीला सा गगन छिटकने लगा अँधेरा ,,
कदम कदम बढ़ रहा ..स्याह सी स्याही का डेरा
गर घूँट घूँट कर पी जाऊं मैं..
चांदनी बन अँधेरे पर पसर जाऊं मैं ,,
और महकने लगूं बन रातरानी सी ,,
मुझे मालूम है ...
उँगलियाँ उठेगी जरूर ,,
कांच के महल वाले पत्थर फेंकेंगे जरूर
कुछ तीखी सी मिर्च लगेगी आँख में
बनके शूल फिर चुभेंगे आँख में
और नासूर बन महकने लगेंगे ,,
दर्द चिरैया के पंख बहकने लगेंगे ,,
मगर फिर भी ख्वाहिश उभर चली..
कैसी प्रहर है ....
होनी सहर है ..
तो क्यूँ न अँधेरा पी जाऊं मैं ,,
लब खुले इससे पहले जी जाऊं मैं ,,
हर्फ को बर्फ सा जमा दूं ,,
वक्त को थोडा सा दगा दूं
भोर को पहले जगा दूं
उतरने दो बदनामियों की बदलियाँ,,
गहरने दो धरा पर बिजलियाँ
कुछ सच की लकीरें पकड़े हुए
झूठ को बांध मुट्ठी में जकड़े हुए ..
थोड़े से जुगनू सजाऊँ मैं
क्यूँ न अँधेरा पी जाऊं मैं
" ----- विजयलक्ष्मी


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