" ए जिन्दगी बता क्यूँ बहुत बेजाँ सवाल छोडती है ,,
देशद्रोहियों की जमात क्यूँ देशभक्तों को तोडती है ||
जिनका लहू पानी हुआ मेहनत जिन्हें भाति नहीं ,,
ऐसे नामुराद देश-बर्बादी को जिन्दा क्यूँ छोडती है ||
वो कांटे भले , जो पुष्प को बरबादियों से बचाते हैं,
क्या करना एसी हवाओ का ,जो शाख से तोडती है ||
बेगैरत औलाद है कैसी जो घर में आग लगा बैठे
आजादी है या बर्बादी , आंगन में दीवारें जोडती है ||
हमारी बयानी तंज लगती है उन्ही फरमाबरदारों को
जिनकी किस्सागोई भी छान औ छतों को तोडती है ||
परवाह कब की तह ब तह झांकती मुफलिसी की
डसती है इबादत भी जब दिलों में दीवार जोडती है ||" ------ विजयलक्ष्मी
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