Thursday 16 June 2016

" अहसास उतरते हैं मन की पगडंडी से "

" अहसास उतरते हैं मन की पगडंडी से
जैसे नदी कोई दौड़ पड़ी हो पर्वत की चोटी से
कुलांचे भरती हुई अनथक ...
अल्हड सी कोई बाला ..
बेबस सी बेसुध जैसे कस्तूरी महक रही हो
कदम है कि ठहरने को तैयार नहीं
गड्ढे मिले ..पत्थर मिले रोकते रास्ते
कही तो पहाड़ ही रख दिए जैसे
लेकिन ...अहसास नद है कि रुकने को तैयार नहीं
यहाँ लाभहानि का व्यापार नहीं
किसी गोदाम के लाचार नहीं
कोई मंत्री-संतरी का इलाका नहीं
वोट का कोई वादा नहीं
कम या कोई ज्यादा नहीं
बस विश्वास है ..
इक सफर का
तन्हा होकर भी तन्हा नहीं
लगती है तपिश याद की जैसे आग जली हो जंगल में
हर इक जीव झुलस रहा हो जैसे
भगदड़ सी मची लगती है
उमस है तपिश है...
और सूरज सा जलता हुआ मन
यहाँ आतताई की जरूरत ही कहाँ हैं
जब अपने ही अपना घर लुटाने पर तुले हो
जिन्हें माँ की ममता में कुटिलता लगती है..भला वो
गंगा की कदर कैसे करेंगे ,,
जिसने औरत को जिस्म मानकर भोग हो ..
उसे क्या जरूरत है सम्मान की
उनके लिए तो ये सौदा है
कुफ्र हुआ करे जिसके लिए है
वृक्ष काटने से मुझे लाभ हैतो मैं तुम्हारा क्यूँ सोचूं भला
मुझे तुम्हारी साँस से क्या लेना भला ..
अच्छा है बंद हो तो सारी हवा पर मेरा कब्जा होगा
हर गली नुक्कड़ कब्जाने के लिए फ़ौज और कब्जा जरूरी है
उसकी क्या कमी है ...
क्यूंकि ...
चाहे भूखे रहो ..चाहे झुग्गी में रहना हो
लेकिन फ़ौज बढनी चाहिए ...
फ़ौज की चिंता तुम मत करो ...सरकार करेगी ..
उसने गरीबी हटाने का संकल्प लिया है..
और हमने...
जनसंख्या बढ़ाने का कृतकल्प ,,
धरती कम पड़नी चाहिए एक बार ,,
फिर..
उसके बाद...
जब सबकुछ अपना होगा ..तब नजर बंद कर देंगे आधे तो
आधे मरे जायेंगे ..आधे बाद में देखे जायेंगे ..
लेकिन ..भूलना नहीं ..
मुझे ..उसी राह पर हूँ..
कुछ ख्वाब जो धर दिए थे तुमने पलकों पर ,,
चीखते हुए सन्नाटे है ..
और दूर तक रस्ते अनजान ,,
मेरे थोड़े से अहसास ..
मेरे जीवन की प्यास बन चुके हैं..
कुछ तो है इस वतन की हवा में ...
फिर सोचती हूँ ...ये गद्दार क्या होते हैं ..
क्यूँ होते हैं ,,
कौन सा कीड़ा है जो दिमाग घुस जाता है ..
जो इंसान इन्सान को मारने काटने पर उतारू हो जाता है ,,,
और मर जाते है अहसास ,,
क्यूँ मर जाते हैं ..लोग ,,जीते जी ,
खींचते हैं चीथड़े हुए मन को लाश बनाकर
आखिर क्यूँ ...?
" ----------- विजयलक्ष्मी

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